
पिता का 'तप' और 'तपन' पिता की
वो घर की छत और फ़िक्र जहान की
घर से निकलता हर रोज़ सुबह
रोटी की कीमत निःस्वार्थ अदा की।
तेरी मेरी फरमाइशें, परिवार की ख्वाहिशें
वो रखता रहा
खुद की भुला दी।
पिता का तप और तपन पिता की।
कंधों पर बोझ, चेहरे पर रौब
हलकी मुस्कान कुछ थकन ज़रा सी।
संसार की नज़रें बातों में उनकी
कभी डांट कि गोली कभी मरहम लगा दी।
वो कहना उनका अक्सर - ज़माना अलग है
पलट कर मेरा कह देना
आपको कहां कुछ पता है।
वो रोकना, वो टोकना, कभी ज़िद्द मेरी यूं मान लेना
याद नहीं कि कब तुमने ज़िद्द अपनी पूरी की थी।
क्यों कभी देख ना पाते
पिता का 'तप' और 'तपन' पिता की।
घर के खर्चे, तमाम ज़िम्मेदारियां
बेफ़िक्री की नींद और बिन शिकायत की सुबह मिला करती थी,
परिवार की गाड़ी कुछ यूं चला करती थी।
हां आज भी याद है जब पहली बार स्कूटी चलानी सीखी थी,
में कितनी डरा करती थी,,
और आप कहते थे बस अपने दिल की सुनो,
गिर के ही उठना सीखोगी।
जब भी कभी कुछ समझ ना आता आपको देखा करती थी।
जॉब मिलने के बाद भी
पॉकेट मनी आपसे मांगने की
खुशी ही अलग हुआ करती थी।

बड़े सख़्त हाथ थे तुम्हारे
बागडोर जब तक संभाली थी
मां के चेहरे पर खुशहाली थी।
हमारी क़िस्मत की सड़क बनाते रहे
और अपनी लकीरें खुरदुरी कर लीं।
आँच ना आये हम पर किसी की
कभी सूरज बने कभी ठंडी हवा दी।
रोज़ करना अपनों का सामना
खुद संभलना फिर मां को थामना,
बाप का दर्जा थक ना जाए
चलते रहना ज़रूरत पिता की।
कभी हो सके तो ज़रूर देखना
पिता का तप और तपन पिता की।