Wednesday, March 31, 2021
Tuesday, March 30, 2021
Sunday, March 7, 2021
अस्मिता
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस .....
इसे कितने लोग जानते हैं? क्या वो महिलाएं जानती हैं जो कभी चूल्हे की चौखट से बाहर ही नहीं निकली या वो जानती हैं जिन्होंने खुद को कभी जाना ही नहीं बस जो बताया गया वही माना। सिर्फ महिला दिवस मनाने से क्या वाकई हम आज भी उस समाज में नहीं जी रहे जहाँ फीमेल को बस एक ऑब्जेक्ट ही समझा जाता है। मैं सिर्फ फिज़िकली ही नहीं कह रही जब भी वजूद की बात आती है तो सामाजिक तौर पर कितना उसे सम्मान दिया जाता है. यहाँ मैं सिर्फ आज उन महिलाओं के बारे में कह रही हूँ जिनकी चेतना समाज के अनुसार होती है। एक महिला की ही बस बात करते हैं बिना उसे किसी कामयाबी या ओहदे पर तोलकर।
नारीवाद की बात करने वाली कुछ महिलाएं ऐसी भी हैं जो पानी का एक गिलास उठाना भी ज़रूरी नहीं समझती, कीर्तन करती हैं महिला मंडल में जाकर उन्नति की बात करती हैं पर अपनी सास की सेवा करना उन्हें बोझिल लगता है। पुरुषों को हमेशा नीचे दिखाना वो अपना अधिकार समझती हैं।
ऐसे लोग आपको अपने आस पास ही मिल जायेंगे। ये समाज पुरुष प्रधान रहा है। है भी और अभी तक जो भी अपराध हुए हैं महिलाओं के प्रति उसे भी नकारा नहीं जा सकता। पर सोच कर देखिये क्या महिलाओं ने खुद अपनी दशा नहीं बिगाड़ी ? रिवाज़ और रीतियां सब औरत के हिस्से, पुरुष के लिए कोई नीति नहीं कोई सीमा नहीं। आपके हमारे पूर्वज और चली आ रही परम्पराओं में सबको बांधना और एक ही चश्मे से हर औरत को देखना क्या ये सही है। उसकी अपनी कोई इच्छा हो इससे पहले उसे एक महिला होने की कसौटी से गुज़रना पड़ता है। इस पर बुद्धिजीवी कुछ महिलाएं खुद को अछूत मानती हैं समझाने पर झगड़ा करती हैं चाहे पढ़ी लिखी हों या अनपढ़ दिमाग में वही जो बचपन से समझाया गया उनकी माँ, दादी या बहनो द्वारा।
कौन कितना सही या गलत है बात ये नहीं बात ये है की सारी व्यवस्था ही शुरू से कुछ ऐसी बनादि की हम चाहकर भी उससे बाहर नहीं आ पाते। घर संभालना खाना बनाना या बाहर काम पर जाना अपनी पहचान बनाना ये दोनों ही चुनाव का आपका अपना अधिकार होना चाहिए। कि आप किस ज़िन्दगी से खुश हैं किसी से तुलना संतुलन बिगाड़ती है। आजकल कुछ मध्यम वर्गी परिवारों में ये जो बेटियों को पढ़ाने कुछ बनाने का चलन हुआ है ये सिर्फ उनकी सोच बदली है ऐसा सबके साथ नहीं है आधे से ज़्यादा तो कम्पटीशन या दिखावा करने में लगे हैं या इस कारण पढ़ने देते हैं की शादी अच्छी जगह हो। बेटी अगर अफसर बने तो बढ़िया लेकिन अगर अपने मुताबिक कोई और नौकरी कर रही है या खुद का कुछ छोटा मोटा व्यवसाय कर रही है और कुंवारी, या विधवा है तो उसकी ज़िंदगी बेकार है। उसे हमेशा एक तमगा देना है ''किसी की होने का'' वो खुद कुछ अपना मत रखना चाहे तो बेहिसाब मान्यताओं में खींच लिया जाता है। और एक लड़की का चरित्र चंद समाज के लोगों, मोहल्ले वालों और रिश्तेदारों के हस्तक्षेप से चिन्हित किया जाता है। मतलब ये मान लें की आपको जीवन जीना है तो पहले समाज के हर व्यक्ति को खुश रखें आप कर्त्तव्य निभाते हुए मर भी जाएँ तो ये सौभाग्य की बात होगी, पुरुष से पीछे रहना ही संस्कार है और उसके बिना आप अधूरी हैं तो अगर आप खुद को पूरा करना चाहती हैं तो किसी से शादी फिर बच्चे, परिवार यही आपकी दुनिया होनी चाहिए ....
अब ये जो चाहिए वाला तर्क है ये समझना है।
क्या होना चाहिए ये समाज या परिवार तय करता है आपको अधिकार नहीं बस इस खींचा तानी में ही टूट रहा है अस्तित्व एक असक्षम महिला का। क्यूंकि जो सक्षम हैं वो कुछ तो खुश हैं पर ज़्यादातर आज भी खुद को साबित करने में लगी हुई हैं। वो कहते हैं न जब किसी को इतना दबाया जाता है तो उसका उलट जो रिएक्शन होता है कई बार पूरे बल से ज़ोर मारता हुआ वापस आता है। यही मनोस्थिति है आज की नारीवादी की।
आपको सिलाई - कढ़ाई करनी है या अच्छी नौकरी ये चुनाव करने की खुशनसीबी बहुत कम लड़कियों को मिल पाती है। एक तरफ पुरुष का अहंकार झेलती कुछ महिलाएं और दूसरी तरफ एक औरत का दूसरी महिला को नीचे दिखाने का दस्तूर चाहे घर परिवार हो या ऑफिस ये पॉलिटिक्स हर जगह मिलती है। जब हम सर्वश्रेष्ठ बनते हैं तो उसमें मुक़ाबला शामिल होता है पर जब हम बेहतर करने का सोचते हैं तो वो सिर्फ अपने अस्तित्व की दौड़ होती है। बस अपने विवेक से आपको ये जान ने की ज़रूरत है कि आपको ख़ुशी किस बात में मिलती है। इसके अलावा मैं बस यही सोच को बढ़ाना चाहूंगी कि जो महिलाएं आपके आस पास हैं जो इस काबिल नहीं कि खुद के लिए कुछ कर सकें उनका सहयोग किया जाए तो दुनिया खूबसूरत रहेगी बिलकुल उस नारी की संरचना की तरह जो कुदरत ने उसे बख़्शी है।
आज सरकार द्वारा महिलाओं के लिये योजनाएं हैं कानून हैं जो आने वाले एक नए और सकारात्मक भविष्य की ओर सराहनीय क़दम है। कुछ पुरुष भी इसमें पूरी तरह से भागीदारी निभा रहे हैं और गर्व से कुकिंग करते हुए अपनी फोटो अपलोड करते हैं। पुरुष और महिला दोनों समान रहें अपनी अपनी शारीरिक और मानसिक भागीदारी के साथ फिर सम्मान भी बरकऱार रहेगा और अस्मिता भी।
बेटियां भोर हैं, ख़ुश्बू हैं, निशा हैं ,बाती हैं
जलती भी हैं रोशन भी करती, वतन की रखवाली भी हैं
झनकार है, दुलार है एक माँ है वो संसार है
शौर्य की गाथा है ,निर्मल कोमल धारा है
धरा है, स्वरा है पाक़ है किताब है
है आत्मविश्वास से भरी हुयी
उड़ने को आतुर अपने आसमानों की अस्मिता लिये।