बाग़ में यूँ ही चलते -चलते, पाँव के नीचे घांस आ गयी ,
कहने लगी -हमें मत रोंदो कुछ हमारे भी अरमान हैं .
फिर अचानक चली हवाएं उड़ने लगा दुपट्टा मेरा ,
कहने लगा मुझे मत थामो उड़ने दो खुले आसमान में .
डाल पे जब भी झूला डाला , पेड़ो ने भी साथ न दिया ,
कहने लगे की देदो हमको चैन थोड़ा उपकार में .
फिर मैंने एक फूल को देखा तोड़ने को उसको सोचा ,
वहां भवरा सुना रहा था उसको एक मधुर संगीत .
जब तोड़ने को हाथ बढ़ाया -बोला फूल - न छूना मुझको ,
येही तो मेरी ज़िन्दगी का सबसे मधुर गान है बस...... "यहीं हमारी जान है ."
हार के फिर मैं बैठ गयी चमचमाती धुप में ,
तन्हाई शमशान ले गयी ..
वहां जो चाहा रोना हमने मुर्दों को भी गिला हो गया .
कहने लगे - के सोने दो
सिस्कियाँ न भरो क़ब्रिस्तान में ............................................