एक इन्सां बनाया था मैंने ऐ धरती तेरे पालन पोषण के लिए
जाने कहाँ गुम हो गया और जीने लगा शोषण के लिए
कभी तेरा तो कभी मेरे नाम का करके बहाना
करता रहा मनमानी इस कदर जीने के लिए
ये धर्म -जात -ऊंच -नीच के जाल बुनता गया
और खुद ही फँस गया इनमें जलने के लिए.
मोहब्बत जो बनायी वो भेद भाव में दफ़्न हो गयी
कभी मुझे पत्थर बना दिया तो कभी तुझ पर पत्थर डाल दिया
जब यह भी लगा कुछ कम है तो.........
फिर कभी मेरे नाम तो तेरे नाम का करके बहाना
कितना ख़ून बहा दिया.
यह सब भी कितने अजीब हैं की पूछते हैं मुझसे
तू मेरा अल्लाह है या भगवान
फिर मुझे मुझसे ही अलग करके पूछते हैं
बता क्या है तेरा नाम
क्यों मुझको है तू काटता
जात- धर्म में छाँटता
कभी मेरी मूरत तो कभी तस्वीर बनाकर
दिल में रखे बैर मेरी ही परछाँई के लिए.
मैं तुझमें ही तो बस्ता था बन के लहू एक रंग का
न मैं सिक्ख, न इसाई,न हिन्दू न मुसलमां
"मैं तो कबसे तू ही था
हाँ वही तू जो था कभी इन्सां"
आ लूट ले मुझको और तबाह कर
न मैं तेरा अल्लाह, न तेरा भगवान्
तेरी ही ये सूरत है तेरा उजड़ा गुलिस्तान
बस आगे बढ़ और क़त्ल कर
ले रौंद ले मुझको सर चढ़कर
कभी तेरे समाज कभी रीति रिवाज़ का करके बहाना
न तुम जिए न वो जिए
इस क़दर...................
चुन-चुन के हैं तूने मेरे टुकड़े किये......................
1 comment:
Effort is nice
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