Wednesday, April 23, 2025

Pahalgam Terror Attack 🙏💔

 लूट कर चमन वो मेरा, पूछते हैं गुल कहाँ,

दीन-ओ-धर्म के नाम पर रूहें हुईं फ़ना फ़ना...

कौन किसके दर पे जाए, साज़िशें बिकती यहाँ,

लाचार, जर्जर हो चुकी है सबकी आत्मा यहाँ...

ना बंदगी तेरी बड़ी, ना मेरी कोई प्रार्थना...

जो है बड़ा सबसे यहाँ, उस रब को जाता कारवां...

आओ झुकाएं सर के फिर, रूहें हुईं फ़ना फ़ना...

- Boltisyaahi 🖋

Sunday, March 7, 2021

अस्मिता


अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस .....


इसे कितने लोग जानते हैं? क्या वो महिलाएं जानती हैं जो कभी चूल्हे की चौखट से बाहर ही नहीं निकली या वो जानती हैं जिन्होंने खुद को कभी जाना ही नहीं बस जो बताया गया वही माना। सिर्फ महिला दिवस मनाने से क्या वाकई हम आज भी उस समाज में नहीं जी रहे जहाँ फीमेल को बस एक ऑब्जेक्ट ही समझा जाता है। मैं सिर्फ फिज़िकली ही नहीं कह रही जब भी वजूद की बात आती है तो सामाजिक तौर पर कितना उसे सम्मान दिया जाता है. यहाँ मैं सिर्फ आज उन महिलाओं के बारे में कह रही हूँ जिनकी चेतना समाज के अनुसार होती है।  एक महिला की ही बस बात करते हैं बिना उसे किसी कामयाबी या ओहदे पर तोलकर।

 नारीवाद की बात करने वाली कुछ महिलाएं ऐसी भी हैं जो पानी का एक गिलास उठाना भी ज़रूरी नहीं समझती, कीर्तन करती हैं महिला मंडल  में जाकर उन्नति की बात करती हैं पर अपनी सास की सेवा करना उन्हें बोझिल लगता है। पुरुषों को हमेशा नीचे दिखाना वो अपना अधिकार समझती हैं। 
ऐसे लोग आपको अपने आस पास ही मिल जायेंगे।  ये समाज पुरुष प्रधान रहा है।  है भी और अभी तक जो भी अपराध हुए हैं महिलाओं के प्रति उसे भी नकारा नहीं जा सकता।  पर सोच कर देखिये क्या महिलाओं ने खुद अपनी दशा नहीं बिगाड़ी ? रिवाज़ और रीतियां सब औरत के हिस्से, पुरुष के लिए कोई नीति नहीं कोई सीमा नहीं।  आपके हमारे पूर्वज और चली आ रही परम्पराओं में सबको बांधना और एक ही चश्मे से हर औरत को देखना क्या ये सही है।  उसकी अपनी कोई इच्छा हो इससे पहले उसे एक महिला होने की कसौटी से गुज़रना पड़ता है। इस पर बुद्धिजीवी कुछ महिलाएं खुद को अछूत मानती हैं समझाने पर झगड़ा करती हैं चाहे पढ़ी लिखी हों या अनपढ़ दिमाग में वही जो बचपन से समझाया गया उनकी माँ, दादी या बहनो द्वारा।

 कौन कितना सही या गलत है बात ये नहीं बात ये है की सारी व्यवस्था ही शुरू से  कुछ ऐसी बनादि की हम चाहकर भी उससे बाहर नहीं आ पाते। घर संभालना खाना बनाना या बाहर काम पर जाना अपनी पहचान बनाना ये दोनों ही चुनाव का आपका अपना अधिकार होना चाहिए। कि आप किस ज़िन्दगी से खुश हैं किसी से तुलना संतुलन बिगाड़ती है। आजकल कुछ मध्यम वर्गी परिवारों में ये जो बेटियों को पढ़ाने कुछ बनाने का चलन हुआ है ये सिर्फ उनकी सोच बदली है ऐसा सबके साथ नहीं है आधे से ज़्यादा तो कम्पटीशन या दिखावा करने में लगे हैं या इस कारण पढ़ने देते हैं की शादी अच्छी जगह हो। बेटी अगर अफसर बने तो बढ़िया लेकिन अगर अपने मुताबिक कोई और नौकरी कर रही है या खुद का कुछ छोटा मोटा व्यवसाय कर रही है और कुंवारी, या विधवा है तो उसकी ज़िंदगी बेकार है।  उसे हमेशा एक तमगा देना है ''किसी की होने का'' वो खुद कुछ अपना मत रखना चाहे तो बेहिसाब मान्यताओं में खींच लिया जाता है।  और एक लड़की का चरित्र चंद समाज के लोगों, मोहल्ले वालों और रिश्तेदारों के हस्तक्षेप से चिन्हित किया जाता है। मतलब ये मान लें की आपको जीवन जीना है तो पहले समाज के हर व्यक्ति को खुश रखें आप कर्त्तव्य निभाते हुए मर भी जाएँ तो ये सौभाग्य की बात होगी, पुरुष से पीछे रहना ही संस्कार है और उसके बिना आप अधूरी हैं तो अगर आप खुद को पूरा करना चाहती हैं तो किसी से शादी फिर बच्चे, परिवार यही आपकी दुनिया होनी चाहिए ....

अब ये जो चाहिए वाला तर्क है ये समझना है।
 क्या होना चाहिए ये समाज या परिवार तय करता है आपको अधिकार नहीं बस इस खींचा तानी में ही टूट रहा है अस्तित्व एक असक्षम महिला का। क्यूंकि जो सक्षम हैं वो कुछ तो खुश हैं पर ज़्यादातर आज भी खुद को साबित करने में लगी हुई हैं। वो कहते हैं न जब किसी को इतना दबाया जाता है तो उसका उलट जो रिएक्शन होता है कई बार पूरे बल से ज़ोर मारता हुआ वापस आता है। यही मनोस्थिति है आज की नारीवादी की।


 आपको सिलाई - कढ़ाई करनी है या अच्छी नौकरी ये चुनाव करने की खुशनसीबी बहुत कम लड़कियों को मिल पाती है। एक तरफ पुरुष का अहंकार झेलती कुछ महिलाएं और दूसरी तरफ एक औरत का दूसरी महिला को नीचे दिखाने का दस्तूर चाहे घर परिवार हो या ऑफिस ये पॉलिटिक्स हर जगह मिलती है। जब हम सर्वश्रेष्ठ बनते हैं तो उसमें मुक़ाबला शामिल होता है पर जब हम बेहतर करने का सोचते हैं तो वो सिर्फ अपने अस्तित्व की दौड़ होती है। बस अपने विवेक से आपको ये जान ने की ज़रूरत है कि आपको ख़ुशी किस बात में मिलती है। इसके अलावा मैं बस यही सोच को बढ़ाना चाहूंगी कि जो महिलाएं आपके आस पास हैं जो इस काबिल नहीं कि खुद के लिए कुछ कर सकें उनका सहयोग किया जाए तो दुनिया खूबसूरत रहेगी बिलकुल उस नारी की संरचना की तरह जो कुदरत ने उसे बख़्शी है। 

 आज सरकार द्वारा महिलाओं के लिये योजनाएं हैं कानून हैं जो आने वाले एक नए और सकारात्मक भविष्य की ओर सराहनीय क़दम है।  कुछ पुरुष भी इसमें पूरी तरह से भागीदारी निभा रहे हैं और गर्व से कुकिंग करते हुए अपनी फोटो अपलोड करते हैं।  पुरुष और महिला दोनों समान रहें अपनी अपनी शारीरिक और मानसिक भागीदारी के साथ फिर सम्मान भी बरकऱार रहेगा और अस्मिता भी।

बेटियां भोर हैं, ख़ुश्बू  हैं, निशा हैं ,बाती हैं
जलती भी हैं रोशन भी करती, वतन की रखवाली भी हैं
झनकार है, दुलार है एक माँ है वो संसार है
शौर्य की गाथा है ,निर्मल कोमल धारा है
धरा है, स्वरा है पाक़ है किताब है
है आत्मविश्वास से भरी हुयी
उड़ने को आतुर अपने आसमानों की अस्मिता लिये।





Sunday, June 16, 2019

पिता का 'तप' और 'तपन' पिता की

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पिता का 'तप' और 'तपन' पिता की
वो घर की छत और फ़िक्र जहान की
घर से निकलता हर रोज़ सुबह
रोटी की कीमत निःस्वार्थ अदा की।

तेरी मेरी फरमाइशें, परिवार की ख्वाहिशें
वो रखता रहा
खुद की भुला दी।
पिता का तप और तपन पिता की।

कंधों पर बोझ, चेहरे पर रौब
हलकी मुस्कान कुछ थकन ज़रा सी।
संसार की नज़रें बातों में उनकी
कभी डांट कि गोली कभी मरहम लगा दी।

वो कहना उनका अक्सर - ज़माना अलग है
पलट कर मेरा कह देना
आपको कहां कुछ पता है।
वो रोकना, वो टोकना, कभी ज़िद्द मेरी यूं मान लेना
याद नहीं कि कब तुमने ज़िद्द अपनी पूरी की थी।
क्यों कभी देख ना पाते
पिता का 'तप' और 'तपन' पिता की।

घर के खर्चे, तमाम ज़िम्मेदारियां
बेफ़िक्री की नींद और बिन शिकायत की सुबह मिला करती थी,
परिवार की गाड़ी कुछ यूं चला करती थी।
हां आज भी याद है जब पहली बार स्कूटी चलानी सीखी थी,
में कितनी डरा करती थी,,
और आप कहते थे बस अपने दिल की सुनो,
गिर के ही उठना सीखोगी।

जब भी कभी कुछ समझ ना आता आपको देखा करती थी।
जॉब मिलने के बाद भी
पॉकेट मनी आपसे मांगने की
खुशी ही अलग हुआ करती थी।


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बड़े सख़्त हाथ थे तुम्हारे
बागडोर जब तक संभाली थी
मां के चेहरे पर खुशहाली थी।
हमारी क़िस्मत की सड़क बनाते रहे
और अपनी लकीरें खुरदुरी कर लीं।
आँच ना आये हम पर किसी की
कभी सूरज बने कभी ठंडी हवा दी।

रोज़ करना अपनों का सामना
खुद संभलना फिर मां को थामना,
बाप का दर्जा थक ना जाए
चलते रहना ज़रूरत पिता की।
कभी हो सके तो ज़रूर देखना
पिता का तप और तपन पिता की।

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Monday, March 12, 2018

महिला सशक्तिकरण सिर्फ एक सोच !




अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस भी हो गया और महिलाओं पर क़सीदे भी पढ़ लिए पर महिला सशक्तिकरण है क्या ?
क्या सही मायने में हम और आप इस बात को समझते हैं।
या इस बात पर ही कॉम्पीटीशन कर रहे हैं की महिलाएं बेहतर हैं या पुरुष। सच तो यह है की अपने-अपने स्तर पर दोनों को ही विभिन्न भूमिका विधाता ने सौंपी है। नारित्व को कितना सजग करें या पौरुष को कितना संयम दें। क्या ज़रूरी है ?
जिस तरह हर प्राणी एक दुसरे से अलग है वैसे ही सृष्टि का भी यही फलसफा है अलग परन्तु मिलकर संसार को चलाना। अपने कार्य करने के अलावा एक दूजे का हाथ बटाने में,सम्मान देने में एहम आ जाए तो नियंत्रण से चीज़ें बाहर हो ही जाएँगी।



 इसमें न तो सिर्फ शिक्षा के आभाव को दोष दे सकते हैं न ही किसी प्रकार की जागरूकता को। वजह क्या है? की कुछ महिलाएं ज़बरदस्ती ही पुरुषों से तुलना में उनके जैसा बनने में लगी हैं
और कुछ पुरुष अपने मर्द होने पर औरतों को नीचे दिखाने और  उन्हें कमज़ोर साबित करने में लगे हुए हैं।
तो मेरे हिसाब से महिला सशक्तिकरण उन लोगों को समझना ज़रूरी है जो सम्मान करना नहीं जानते चाहे खुद का हो या दुसरे किसी भी जैंडर का।

Women Empowerment का मतलब है महिलाओं का अपनी पहचान बनाना,जागरूक होना, अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठाना, अपना आत्मविश्वास बढ़ाना और सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करना।



मेरा हमेशा से ही यह मानना रहा है की औरत ही औरत को दबाती है। जिन पुरुषों को हम दोष देते हैं की वो अपनी बहन,बेटी,पत्नी या महिला सहकर्मी की इज़्ज़त नहीं करता ये फितरत यूँ ही नहीं आजाती उनमें। बचपन से ही अपनी माँ की बेबसी,पिता द्वारा अपमान,घर की औरतों की चुप्पी या परदे की शर्म को देखते आये होंगे तभी औरत की झुकी नज़र को उसका नीचे दर्जे का होना ही मान लेते होंगे।



अजीब यह भी है की जिन महिलाओं को सारे अधिकार मिले हुए हैं जो खुद क़ाबिल हैं वही समझती हैं सशक्तिकरण का अर्थ पर ये शब्द और मुहिम जिन महिलाओं के लिए है वो आज भी दबी कुचली ज़िन्दगी जीने की ग़ुलाम हैं।

बहुत सी सरकारी योजनाएं और कार्यक्रम,सहूलियतें शुरू तो की गयी हैं,फायदे भी हुए हैं जागरूकता भी आयी है और कुछ के चेहरों पर मुसकान भी।



फिल्म्स बनती हैं,नारे लगते हैं,भाषण होते हैं पर अफ़सोस की असल ग्राफ कुछ और ही बयान करता है। तो फिर कैसे बचाया जाए इस सम्मान को? शुरुआत सिर्फ और सिर्फ हम अपने घर से कर सकते हैं।   
इसीलिए पोषण अगर सही न हो तो हानि तो होगी ही। हर एक परवरिश से परिवार और फिर समाज बनता है एक ग़लत सीख पूरे समाज को खतरे में डाल देति है।

पहले तो हर महिला को खुदको कमतर आंकने का दृष्टिकोण बदलना चाहिए।
एक माँ पहले महिला है तो अपनी बेटी को भी सशक्त बनाये उसे जागरूक विचारधारा देकर उसे उड़ना सिखाये तो बेटे को उसका पंख बनाये की दोनों अधूरे हो एकदूजे के बिना।


हर माँ अपने बच्चे को ग़लत बात पर कान पकड़कर सही राह दिखाएगी तो प्रयास आसान होंगे क्यूंकि सशक्त तो दूसरा मुद्दा है पहले तो सुरक्षा ज़रूरी है महिलाओं की।

Women Empowerment कोई बड़ी बात नहीं मैथ्स का कोई डिफिकल्ट फार्मूला नहीं जिसे सॉल्व करने में दिमाग की इतनी कसरत की जाए। सब कुछ बड़ा ही सरल है पर सदियों की जो रूढ़िवादी  जड़ और शाखाएं हैं इतनी मज़बूत हो चुकी हैं कि आसानी से पीछा नहीं छोड़ेंगी।
जिस दिन हर बेटे और बेटी को सही परवरिश,मौके,सही शिक्षा एवं रोज़गार, चुनने की आज़ादी,ग़लत पर ना कहने की हिम्मत, फॅमिली का सही दिशा में सपोर्ट और मान मिलेगा उस दिन कोई महिला न बेचारी होगी न हारेगी। क्यूंकि बेटे और बेटी का सही पोषण हुआ होगा। महिला और पुरुष दोनों जब एक दुसरे का सत्कार करेंगे तब ही ये मुमकिन हो पायेगा। वरना इस दबाव के चलते महिलाएं खुद को साबित करने में ही लगी रहेंगी खुद के प्रति हीन भावना लिए और दूसरी तरफ कुछ महिलाएं कानून का फायदा उठाकर किसी पुरुष को बेवजह अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करेंगी।


पर यहाँ भी एक शर्त है की महिला को महिला की दोस्त बनकर उसका हर क़दम पर साथ देना होगा क्यूँकि ये जो चार लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे वाले समाज में तीन तो महिला ही होती हैं जो बातें बनाती हैं और जब किसी महिला का साथ देने की बात आती है तो चुप्पी साध लेती हैं।
हैरत होती है की क्या हम औरतें अलग जीव हैं जो हमारे प्रति इतना भेद भाव है हाँ वाक़ई हमें नज़र झुकाने की ज़रूरत है क्यूँकि शर्म की बात है की हमें अपने अधिकारों के लिए आज भी लड़ना पढ़ रहा है।  

सिर्फ नारी ही समाज को सशक्त कर सकती है और खोखले समाज का अपने अस्तित्व का पतन होने से बचा सकती है। जिस दिन एक सास अपनी बहू को पुत्र की जगह पुत्री होने का आशिर्वाद देगी उस दिन हो जायेगा महिला सशक्तिकरण।





 

Monday, February 5, 2018

श्री सिद्धबली धाम






इस धरती पर जिन सात विद्वानों को अमरत्व का वरदान प्राप्त है उनमें से एक राम भक्त हनुमान हैं। इन्हें बजरंगबली इसलिए कहा जाता है क्यूँकि इनका शरीर वज्र के समान है। इन्द्र के वज्र से हनुमान जी की ठुड्डी (संस्कृत में हनु) टूट गयी थी। इसलिए उनको हनुमान का नाम दिया गया। इसके अलावा ये अनेक नामों से प्रसिद्ध हैं जैसे मारुती,अंजनी सुत,पवन पुत्र,संकटमोचन,केसरी नंदन,महावीर,कपीश,शंकर सुवन आदि।

चाहे किसी भी नाम से पुकारो साफ़ दिल और सच्चे मन से मांगी हुयी हर मुराद पूरी होती है सिद्धबली धाम में। अपने सफर की शुरुआत मैंने की उत्तरप्रदेश, मुरादाबाद से, वहां से अपनी गाड़ी में नजीबाबाद होते हुए हम तीन घंटे में पहुंचे उत्तराखंड,ज़िला पौड़ी गढ़वाल की तहसील कोटद्वार। यह पौड़ी ज़िले का एक मुख्य नगर है। इसे गढ़वाल का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। खोह नदी के तट पर स्थित यह नगर इतिहास में खोहद्वार से भी जाना जाता था। कोटद्वार का रेलवे स्टेशन भारत के सबसे पुराने रेलवे स्टेशन में से एक है जो की ब्रिटिशर्स द्वारा 1890 में बनाया गया था.



यहाँ की मेन मार्किट से गुज़रते हुए आपको ताज़े फल,सब्ज़ियां,चाट-पकोड़ी की दुकानें,मिष्ठान भण्डार, लकड़ी से बनी वस्तुएँ,घर सजाने का सामान,कपड़े,आदि की दुकानें व शोरूम्स भी मिलेंगे।इसके अलावा यह एक बड़ा कमर्शियल सेंटर है आटा मिल,तेल निष्कर्षण,प्रिंटिंग प्रेस,चावल की थैलियों का निर्माण,प्लास्टिक और रबर के उत्पाद कोटद्वार के प्रमुख उद्योग हैं।
यहाँ से करीब 2.5 km की दूरी पर कोटद्वार-पौड़ी राजमार्ग में खोह नदी पर एक चौड़ा पुल पार करके लगभग 40 मीटर ऊंचे टीले पर स्थित है पौराणिक देव स्थल श्री सिद्धबली मंदिर।



नीचे गाडी पार्क करके हमने आस पास की दुकानों से चढ़ाने के लिए प्रसाद लिया जिसमें गुड़,चने,नारियल विशेष ही रहते हैं। 





फिर नीचे चप्पल,जूते उतारने के बाद कुछ सीढ़ियां चढ़कर हम पहुंचते हैं दरबार में। दर्शन के लिए और इससे जुड़ी कहानी के लिए देखें मेरा ये वीडियो।



   
ये मंदिर जो आपने अभी इस वीडियो में देखा,कहा जाता है की यहाँ सिद्धबली जी की धूल रखके अनुकृति बना दी गयी है।


जो असली मंदिर है वो इससे भी ऊपर घने जंगलों के बीच बसा है जहाँ सबको जाने की अनुमति नहीं और ना ही सबकी हिम्मत क्यूँकि जंगली जानवर जैसे बाघ,हाथी,साँपों से भरा है वो रास्ता जहाँ पैदल मार्ग से ही जाया जा सकता है। बहुत ही पौराणिक चमत्कारी मंदिर है ये 1865 का।


ऐसा भी प्रमाण है की यहाँ सिक्खों के गुरु गुरुनानक देव जी भी आकर ठहरे थे,कुछ अन्य धर्म के भी साधु संत यहाँ तप- साधना करने आये इस ही वजह से सिर्फ हिन्दू ही नहीं दुसरे धर्म के भी कुछ भक्त यहाँ अपनी आस्था रखते हैं और दर्शन के लिए आते हैं।यहाँ प्रतिवर्ष मेला भी लगता है जहाँ दूर- दूर से श्रद्धालु आते हैं और सभी धर्मों के लोग भाग लेते हैं। मंगलवार,शनिवार और रविवार तो यहाँ सुबह से ही श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।


कुछ साल पहले बाढ़ और पहाड़ खिसकने की वजह से इस मंदिर का कुछ भाग क्षतिग्रस्त हो गया था पर ये मंदिर चमत्कारी ढंग से टिका रहा, वहां के लोगों की यह मान्यता है की खुद बजरंगबली जी ने इस मंदिर को अपने कन्धों पर उठाया हुआ है। 
यहाँ दर्शन करने के बाद नीचे उतर कर बायीं तरफ हमने शिवजी को जल चढ़ाया। 



आगे बना हुआ है शनिदेव महाराज का मंदिर जिसकी परिक्रमा करके हम थोड़ा और नीचे उतर के पहुंचे भंडारे में जो किसी न किसी श्रद्धालु द्वारा रोज़ आयोजित होता है इस बार हमारे परिवार को यह अवसर मिला था। और हमारा नंबर २ वर्ष बाद आया जैसा की मैंने आपको बताया था महीनों और सालों का लंबा वक़्त लगता है यहाँ भंडारा कराने के लिए तब कहीं जाकर आपकी बारी आती है।
जिस दिन आपकी तरफ से भंडारा होता है उससे एक दिन पहले आके आपको सारी तैयारियां, सामान, सामग्री आदि देनी और देखनी होती है। रात को यहाँ आप आराम से मंदिर के कमरों में परिवार सहित रुकते हैं फिर अगले दिन सुबह करीब 6:00 बजे हवन व पूजा होती है, हनुमान जी को भोग लगाकर,पंडितों को खाना खिलाके लगभग 8:00 बजे से भंडारा शुरू हो जाता है।


यह भंडारा  दोपहर  2:00 या 4:00 बजे तक चलता है या आपके समय और सामग्री पर निर्भर करता है। आप जिन्हे बुलाते हैं उनके अलावा जो भी उस वक़्त दर्शन करने आता है प्रसाद चखता हुआ जाता है।



हमेशा से ही मुझे लंगर और भंडारे पार्टियों से ज़्यादा बेहतर लगते हैं क्यूँकि यहाँ भोजन का अपमान नहीं होता सबके लिए दर खुला होता है छोटा- बड़ा,अमीर- गरीब,ऊंच-नीच हम कुछ नहीं देखते बस एक भाव होता है 'सेवा' का जिसमें खिलाने वाला भी झुकता है और खाने वाला भी। और कितना अच्छा हो गर ये भाव हम हमेशा अपने अंदर रखें कितने निश्छल हो जाएंगे हम।



इसके बाद मंदिर से बाहर निकलकर अपने घर के कुछ बच्चों की पल्टन को लेकर हम चल दिए खोह नदी की ओर। इस नदी का पौराणिक ग्रंथों में भी उल्लेख है। ऐतिहासिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टि से इसका महत्व है।यह वही नदी है जिसकी सफाई अभियान का शुभारम्भ पिछले साल सामाजिक संस्था आधारशिला फाउंडेशन ने "मेरी गंगा,मेरी खोह,मेरी मालिनी,मेरी यमुना" के तहत कोटद्वार में दुगड्डा से किया था। 


सिद्धबली मंदिर से दुगड्डा करीब 13 km की दूरी पर है। और यहीं पर प्राचीन दुर्गा देवी मंदिर है। 



विशाल चट्टानों और हरे भरे जंगलों के बीच पत्थरों पर से कूदता फांदता पानी एक अलग ही नज़ारा चित्रित करता है।यहाँ खोह नदी के तट पर पर्यटक अक्सर आते हैं पर यहाँ पानी में फिसलकर कई लोग दुर्घटना का शिकार हो चके हैं इस वजह से सिद्धबली की तरफ और दुगड्डे का भी नीचे उतर के जाने का मार्ग अब बंद कर दिया है। 


पर हम थोड़े एडवेंचर के लिए एक छोटी सी ऊबड़ खाबड़ पथरीली पहाड़ी पर से गुज़रते हुए पहुंच गए खोह नदी के तट पर। हमारे साथ परिवार के और भी बड़े लोग थे वरना आप वहां बच्चों या बुज़ुर्गों को लेकर ही जाएँ तो अच्छा है क्यूँकि रास्ता जोखिमभरा है। और मानसून में तो बिलकुल भी नहीं अक्सर यहाँ पानी गहरा,बहाव तेज़ और फिसलन रहती है। वहां पहुंचते ही हम सबने अपनी थकान नदी के शीतल जल में पैरों को डुबोकर, कुछ देर पत्थरों पर बैठकर प्रकृति की गोद में मिटाई।


पूरा दिन बिताने के बाद अब सूरज का भी वक़्त हो चला था थोड़ा आराम करने का उसकी लालिमा को ओढ़े हम वापस घर को चल दिए।