Monday, February 5, 2018

श्री सिद्धबली धाम






इस धरती पर जिन सात विद्वानों को अमरत्व का वरदान प्राप्त है उनमें से एक राम भक्त हनुमान हैं। इन्हें बजरंगबली इसलिए कहा जाता है क्यूँकि इनका शरीर वज्र के समान है। इन्द्र के वज्र से हनुमान जी की ठुड्डी (संस्कृत में हनु) टूट गयी थी। इसलिए उनको हनुमान का नाम दिया गया। इसके अलावा ये अनेक नामों से प्रसिद्ध हैं जैसे मारुती,अंजनी सुत,पवन पुत्र,संकटमोचन,केसरी नंदन,महावीर,कपीश,शंकर सुवन आदि।

चाहे किसी भी नाम से पुकारो साफ़ दिल और सच्चे मन से मांगी हुयी हर मुराद पूरी होती है सिद्धबली धाम में। अपने सफर की शुरुआत मैंने की उत्तरप्रदेश, मुरादाबाद से, वहां से अपनी गाड़ी में नजीबाबाद होते हुए हम तीन घंटे में पहुंचे उत्तराखंड,ज़िला पौड़ी गढ़वाल की तहसील कोटद्वार। यह पौड़ी ज़िले का एक मुख्य नगर है। इसे गढ़वाल का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। खोह नदी के तट पर स्थित यह नगर इतिहास में खोहद्वार से भी जाना जाता था। कोटद्वार का रेलवे स्टेशन भारत के सबसे पुराने रेलवे स्टेशन में से एक है जो की ब्रिटिशर्स द्वारा 1890 में बनाया गया था.



यहाँ की मेन मार्किट से गुज़रते हुए आपको ताज़े फल,सब्ज़ियां,चाट-पकोड़ी की दुकानें,मिष्ठान भण्डार, लकड़ी से बनी वस्तुएँ,घर सजाने का सामान,कपड़े,आदि की दुकानें व शोरूम्स भी मिलेंगे।इसके अलावा यह एक बड़ा कमर्शियल सेंटर है आटा मिल,तेल निष्कर्षण,प्रिंटिंग प्रेस,चावल की थैलियों का निर्माण,प्लास्टिक और रबर के उत्पाद कोटद्वार के प्रमुख उद्योग हैं।
यहाँ से करीब 2.5 km की दूरी पर कोटद्वार-पौड़ी राजमार्ग में खोह नदी पर एक चौड़ा पुल पार करके लगभग 40 मीटर ऊंचे टीले पर स्थित है पौराणिक देव स्थल श्री सिद्धबली मंदिर।



नीचे गाडी पार्क करके हमने आस पास की दुकानों से चढ़ाने के लिए प्रसाद लिया जिसमें गुड़,चने,नारियल विशेष ही रहते हैं। 





फिर नीचे चप्पल,जूते उतारने के बाद कुछ सीढ़ियां चढ़कर हम पहुंचते हैं दरबार में। दर्शन के लिए और इससे जुड़ी कहानी के लिए देखें मेरा ये वीडियो।



   
ये मंदिर जो आपने अभी इस वीडियो में देखा,कहा जाता है की यहाँ सिद्धबली जी की धूल रखके अनुकृति बना दी गयी है।


जो असली मंदिर है वो इससे भी ऊपर घने जंगलों के बीच बसा है जहाँ सबको जाने की अनुमति नहीं और ना ही सबकी हिम्मत क्यूँकि जंगली जानवर जैसे बाघ,हाथी,साँपों से भरा है वो रास्ता जहाँ पैदल मार्ग से ही जाया जा सकता है। बहुत ही पौराणिक चमत्कारी मंदिर है ये 1865 का।


ऐसा भी प्रमाण है की यहाँ सिक्खों के गुरु गुरुनानक देव जी भी आकर ठहरे थे,कुछ अन्य धर्म के भी साधु संत यहाँ तप- साधना करने आये इस ही वजह से सिर्फ हिन्दू ही नहीं दुसरे धर्म के भी कुछ भक्त यहाँ अपनी आस्था रखते हैं और दर्शन के लिए आते हैं।यहाँ प्रतिवर्ष मेला भी लगता है जहाँ दूर- दूर से श्रद्धालु आते हैं और सभी धर्मों के लोग भाग लेते हैं। मंगलवार,शनिवार और रविवार तो यहाँ सुबह से ही श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।


कुछ साल पहले बाढ़ और पहाड़ खिसकने की वजह से इस मंदिर का कुछ भाग क्षतिग्रस्त हो गया था पर ये मंदिर चमत्कारी ढंग से टिका रहा, वहां के लोगों की यह मान्यता है की खुद बजरंगबली जी ने इस मंदिर को अपने कन्धों पर उठाया हुआ है। 
यहाँ दर्शन करने के बाद नीचे उतर कर बायीं तरफ हमने शिवजी को जल चढ़ाया। 



आगे बना हुआ है शनिदेव महाराज का मंदिर जिसकी परिक्रमा करके हम थोड़ा और नीचे उतर के पहुंचे भंडारे में जो किसी न किसी श्रद्धालु द्वारा रोज़ आयोजित होता है इस बार हमारे परिवार को यह अवसर मिला था। और हमारा नंबर २ वर्ष बाद आया जैसा की मैंने आपको बताया था महीनों और सालों का लंबा वक़्त लगता है यहाँ भंडारा कराने के लिए तब कहीं जाकर आपकी बारी आती है।
जिस दिन आपकी तरफ से भंडारा होता है उससे एक दिन पहले आके आपको सारी तैयारियां, सामान, सामग्री आदि देनी और देखनी होती है। रात को यहाँ आप आराम से मंदिर के कमरों में परिवार सहित रुकते हैं फिर अगले दिन सुबह करीब 6:00 बजे हवन व पूजा होती है, हनुमान जी को भोग लगाकर,पंडितों को खाना खिलाके लगभग 8:00 बजे से भंडारा शुरू हो जाता है।


यह भंडारा  दोपहर  2:00 या 4:00 बजे तक चलता है या आपके समय और सामग्री पर निर्भर करता है। आप जिन्हे बुलाते हैं उनके अलावा जो भी उस वक़्त दर्शन करने आता है प्रसाद चखता हुआ जाता है।



हमेशा से ही मुझे लंगर और भंडारे पार्टियों से ज़्यादा बेहतर लगते हैं क्यूँकि यहाँ भोजन का अपमान नहीं होता सबके लिए दर खुला होता है छोटा- बड़ा,अमीर- गरीब,ऊंच-नीच हम कुछ नहीं देखते बस एक भाव होता है 'सेवा' का जिसमें खिलाने वाला भी झुकता है और खाने वाला भी। और कितना अच्छा हो गर ये भाव हम हमेशा अपने अंदर रखें कितने निश्छल हो जाएंगे हम।



इसके बाद मंदिर से बाहर निकलकर अपने घर के कुछ बच्चों की पल्टन को लेकर हम चल दिए खोह नदी की ओर। इस नदी का पौराणिक ग्रंथों में भी उल्लेख है। ऐतिहासिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टि से इसका महत्व है।यह वही नदी है जिसकी सफाई अभियान का शुभारम्भ पिछले साल सामाजिक संस्था आधारशिला फाउंडेशन ने "मेरी गंगा,मेरी खोह,मेरी मालिनी,मेरी यमुना" के तहत कोटद्वार में दुगड्डा से किया था। 


सिद्धबली मंदिर से दुगड्डा करीब 13 km की दूरी पर है। और यहीं पर प्राचीन दुर्गा देवी मंदिर है। 



विशाल चट्टानों और हरे भरे जंगलों के बीच पत्थरों पर से कूदता फांदता पानी एक अलग ही नज़ारा चित्रित करता है।यहाँ खोह नदी के तट पर पर्यटक अक्सर आते हैं पर यहाँ पानी में फिसलकर कई लोग दुर्घटना का शिकार हो चके हैं इस वजह से सिद्धबली की तरफ और दुगड्डे का भी नीचे उतर के जाने का मार्ग अब बंद कर दिया है। 


पर हम थोड़े एडवेंचर के लिए एक छोटी सी ऊबड़ खाबड़ पथरीली पहाड़ी पर से गुज़रते हुए पहुंच गए खोह नदी के तट पर। हमारे साथ परिवार के और भी बड़े लोग थे वरना आप वहां बच्चों या बुज़ुर्गों को लेकर ही जाएँ तो अच्छा है क्यूँकि रास्ता जोखिमभरा है। और मानसून में तो बिलकुल भी नहीं अक्सर यहाँ पानी गहरा,बहाव तेज़ और फिसलन रहती है। वहां पहुंचते ही हम सबने अपनी थकान नदी के शीतल जल में पैरों को डुबोकर, कुछ देर पत्थरों पर बैठकर प्रकृति की गोद में मिटाई।


पूरा दिन बिताने के बाद अब सूरज का भी वक़्त हो चला था थोड़ा आराम करने का उसकी लालिमा को ओढ़े हम वापस घर को चल दिए। 













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