पहले रेंगती किसी की सिसकी
फिर रेंगती न्याय को चीखें
दम तोड़ती अर्ज़ियाँ कितनी
होते सवेरे बड़ी देर में।
देर में जगते मान हैं सबके
माया में ईमान हैं बस्ते
रावण को जलाते देश में
क्यों इतने हैवान हैं बस्ते।
कुछ दोष है यह संसार का
कुछ गुनाह है लाड- प्यार का
माँ जो पुरुष की जननी है
पहले वो नारी जन्मी है
क्यों है बख़्शती उस पापी को
जो करता अत्याचार
कभी करता बलात्कार
पोषण में न मिले संस्कार
तो बुद्धि में होता विकार।
माँ का धर्म सृजन ही नहीं
काली का भी है अवतार
हाँ उसका है यह अधिकार
ऐसे पूत कपूत का करदे वो खुद ही संहार।
हाँ करदे माँ खुद ही संहार
फिर न होगी चीख पुकार
न कोई बेटी लाचार
बदल जायेगा यह संसार
जब नारी करेगी नारी से प्यार।
फिर शाम की देरी न होगी
हर कलि बेख़ौफ़ खिलेगी
माथे की शिकन न होगी
माँ की सीख दुरुस्त जो होगी।
नारी तो एक वो भी है
जो खुद न्याय की देवी है
उसका भी खंडन हैं करते
भ्रष्टाचार से पलड़ा भरते
रात करें वो काले धंदे
होते फिर सवेरे अंधे
खुद के घर जब आंच न आये
न समझे कोई पीर पराये
मतलब की इस भीड़ भाड़ में
हाय मर गए खुदा के बंदे
न रहे वो राम के बंदे।
बलात्कार भारत में महिलाओं के खिलाफ चौथा सबसे आम अपराध है।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक, 2012 में 24,923 और 2016 में 38,947 बलात्कार
के मामले पूरे भारत में दर्ज किए गए थे। इनमें से 98% मामलों में अपराधी
पीड़ित के जानकार ही थे। भारत में हर दिन औसतन 92 महिलाओं पर बलात्कार किया
गया और राष्ट्रीय राजधानी में करीब 1636 मामले दर्ज हुए। तकरीबन हर छह मिनट में एक रेप की घटना दर्ज होती है।
यह
तो वो मामले हैं जो बताये गए पर जाने कितने ऐसे केसेज़ हैं जो न कभी सामने
आये और न ही आएंगे पर अगर आ भी गए तो ये बेईमानी भीड़ जिसे हम सोसाइटी कहते
हैं क्या उखाड़ लेगी?
जो
भी महिला मेरा यह लेख पढ़ रही होंगी अगर मैं आपसे पूछूँ की क्या कभी आपके
साथ कोई छेड़ छाड़ या शोषण हुआ? क्या कभी आपको उस मेन्टल हरैस्मेंट से गुज़रना
पड़ा?
सड़क पे कभी बाज़ार में कभी बस
या ट्रैन में हम महिलाएं बचपन से ही रोज़ ऐसी जाने कितनी बद्तमीज़ियां
बर्दाश्त करती है। इस भीड़ के सामने ही कभी कोई हाथ मार के निकल जाता है कभी
कमैंट्स पास कर जाता है पर मजाल है गांधीजी के इन बंदरों की जो आगे बढ़कर
ख़िलाफ़त करें यह सामाजिक भीड़ के बन्दर न तो बुरा देखते हैं न सुनते हैं न
बोलते हैं क्यूँकि मनुष्य की यह प्रजाति अपनी बिरादरी की कभी सगी न हो सकी।
इन सब हालातों में जो हर आम लड़की हर रोज़ ऐसे बद्ज़ातों की वजह से जिस
मानसिक पीड़ा से गुज़रती है वो एक औरत जात ही जानती है जी हाँ जानती हैं क्यूँकि
अगर समझती तो आज औरत की स्थिति ऐसी न होती। सिर्फ बलात्कार ही नहीं ईव
टीज़िंग भी एक बहुत बड़ा मुद्दा है पर इस पर बात करे कौन? सिर्फ छेड़ के तो
जाते हैं उठा कर ले जायेंगे या रेप करेंगे तब बड़ी बात होगी हमारे परिवार भी
हमें ऐसी बातों को छोटी बताकर नज़रअंदाज़ करना सिखाते हैं।
यह
कैसा पैमाना है और किस तरह तय कर लिया जाता है की आत्मसम्मान को कितनी ठेस
पहुंचती है ऐसे अपराधियों की वजह से? अपनी तरफ से जब मैंने कुछ महिलाओं और
लड़कियों से बात की तो सब पीछे हट गयीं की छेड़ते तो हैं पर हम किसी से कोई
शिकायत नहीं करेंगे हमें शर्म आती है बदनामी होती है लोग क्या कहेंगे ऐसी
बातों के जाल में फसकर बैठी रहती हैं।ये सवाल मुझे हमेशा कचोटता है की कैसे
हमारा मन मान जाता है ऐसी बातों पर खामोश रहकर बिना लड़े बिना शोर मचाये और
क्यों बार बार हम ऐसे घिनौने जानवरों को अगला मौका देकर खतरनाक बनाते हैं?
जो नेता या कुछ रूढ़िवादी लोग ये कहते हैं की छोटे कपड़े पहने होंगे,
लड़कियां बाहर निकलती ही क्यों हैं या लड़की की ही गलती होगी ऐसे महानुभावों
से मैं पूछना चाहूंगी की यह वहशी दरिंदे न तो १०० साल की बूढ़ी महिला को
छोड़ते हैं न १ साल की बच्ची को।
इन मामलों में किसी छोटी बच्ची या बुज़ुर्ग महिला का क्या ढकवायेंगे और क्या कपड़े पहनाएंगे?
निर्भया रेप केस ने पूरे देश को हिला दिया था याद है मुझे कितनी रातें मैं
सो नहीं पायी थी यह सोच के की किस असहनीय पीड़ा से वो बेचारी गुज़र रही
होगी। कहाँ है भगवन?क्यों नहीं आये उसे बचाने? पर सत्य तो यही है की
चमत्कार नहीं होते न क़यामत आती है।अपने अपने भगवान् के ठेके लेके कुछ बाबा
बैठे तो हैं चमत्कार दिखाने। मीडिया ने ये मुद्दा उठाया तो चर्चित हुआ
आंदोलन हुए कैंडल मार्च हुआ और आला अफसरों पर, सरकार पर दबाव बड़ा तो थोड़े
हाथ पैर चले और काम हुआ पर ऊंचे पद पर बैठे क्या समझेंगे किसी और की बेटी
की दर्द की गहरायी को।
निर्भया केस से पहले और उसके बाद भी रूह कंपा देने वाले अपराध हुए हैं और हो रहे हैं।
- मथुरा
रेप केस - महाराष्ट्र के चंद्रपुर ज़िले में 15 साल की मथुरा नाम की बच्ची
के साथ दो पुलिसवालों ने पुलिस कंपाउंड में रेप किया।
- वेस्ट बंगाल की नाडिआ डिस्ट्रिक्ट का 2015 का रेप केस जिसमे 71 साल की बुज़ुर्ग महिला का 8 आदमियों ने रेप किया।
- Oct.2017-हाल
ही में पिछले महीने मेरठ के एक गांव की शर्मसार करने वाली दरिंदगी हुयी
100 साल की बिस्तर पे पड़ी बीमार बूढ़ी अम्मा का एक 35 साल के आदमी ने
बलात्कार कर दिया।
- तमिल
नाडु का वचथि गांव का 1992 का केस जिसमें कितने सारे पुलिस कर्मी और वन
अधिकारी शामिल थे वहां की महिलाओं का सामूहिक बलात्कार करने
में। कितनी बार
सुना गया है की जब कोई रेप पीड़िता रिपोर्ट दर्ज कराने गयी तो पुलिसवालों ने
उसे एक मौका समझकर अपना वहशीपन दिखाया की रेप तो हो ही गया है चलो हम भी
थोड़े मज़े ले लें.इतनी ज़लील ज़ेहनियत लिये कितने ही लोग सिस्टम से जुड़े हुए
हैं क्या वाकई लोकतंत्र है? अगर है तो क्यों सभी सत्ताधारियों पर से भरोसा
उठ रहा है ? जब सिस्टम ही भ्रष्ट हो जाए फिर किस्से मदद मांगे?
इसीलिए मैंने अपने लेख में संस्कार की बात की है क्यूँकी एजुकेशन ही सिर्फ मायने नहीं रखती ज़रूरी है नीयत का और मानसिकता का साफ़ होना जो घर परिवार के परिवेश और परवरिश से मिलती है फिर चाहे हम किसी भी प्रोफेशन में हों देश का और समाज का भला ही करेंगे।
वो ज़माना तो रहा ही नहीं की लड़की के जवान होने का डर हो पैदा होते ही वो सिर्फ एक सैक्स ऑब्जेक्ट के तौर पे देखी जाती है।
लड़की न मिले तो छोटे लड़कों या किशोरों को उठा लिया जाता है।
- 2016 NCRB के डाटा के अनुसार हर साल बच्चों पर यौन शोषण के मामले बढ़ते जा रहे हैं।
- हाल
ही में पिछले महीने नवम्बर में दिल्ली के एक स्कूल का चौंकाने वाला केस
सामने आया साढ़े चार साल के बच्चे ने अपनी ही क्लास में पढ़ने वाली बच्ची का
यौन शोषण किया अब इसमें न तो उस बच्चे का कसूर है न उस बच्ची का।
क्या देखा होगा उस बच्चे ने ऐसा? क्या समझा होगा जो ऐसी हरकत कर डाली जिस
उम्र में पेंसिल से उसे सारे शब्द भी लिखने नहीं आते उस ही पेंसिल से
घिनौने कार्य करना सीख गया।
- अभी इस
बात को सुनकर हम चौंके ही थे की दूसरी घटना ग़ाज़ियाबाद के एक स्कूल की
सामने आ गयी जिसमें पांचवीं कक्षा के छात्र ने कक्षा दो में पड़ने वाली
छात्र के साथ घिनौनी हरकत की।
रेप
होना तो जैसे बड़ी ही आम बात होती जा रही है इस पर खूब लिखा और बोला जाता
है पर मसला तो जैसे का तैसा ही है या ये कहें की भयानक हो गया है अब और भी
भविष्य का दर्पण जो बालपन में ही बच्चे वयस्क हो चले हैं,अपराधिक प्रवत्ति बढ़ती जा रही है और मानवता ख़तरे में है।
सन 2003 में जहाँ 466 किशोरों के खिलाफ दुष्कर्म के मामले दर्ज हुए थे वहीँ 2015 में आंकड़ा 1690 तक पहुंच गया।
निर्भया
केस में भी सबसे ज़्यादा दरिंदगी उस नाबालिग लड़के ने ही की थी जो अब अपनी
सज़ा काट के बरी हो चूका है। और खतरा बढ़ता जा रहा है क्यूँकि उसके जैसे जाने
कितने किशोर ग़लीज मानसिकता लिए घूम रहे हैं और अब यह वायरस बच्चों के
मस्तिष्क में घुस चूका है जो चेतावनी है आने वाले काल के कलंकित रूप की।
इंसाफ
का तराज़ू,प्रतिघात, बैंडिट क़्वीन लज्जा,अंजाम,जागो,दामिनी,काबिल,पिंक ये
वो फिल्में हैं जो समाज के एक सामान्य और डरावने सत्य को दर्शाती हैं
जिन्हे देखने के बाद दिल में डर और दिमाग में चिंता बैठी रह जाती है।

कभी
कोई टीचर रेप करदेता है कभी कोई चाचा देवर बाप या ससुर कोई मामा या भाई
कहीं पती दोस्तों के साथ मिलकर बलात्कार करता है किशोर क्रूरता पे उतर आये
हैं और बच्चे मलिनता में घिरते जा रहे हैं हर रिश्ता खण्डित हो चूका। वजह
इंटरनेट,टेलीविज़न,फिल्मों में खोजें,सभ्यता और जीवनशैली में खोजें, सख्ती
और कड़े कानून के अभाव में खोजें या ये कहें की अब मानव के शुक्राणू इस भेस
में जन्म लेंगे। शर्म, वहशीपन ,दरिंदगी या कोई भी घटिया गाली इस्तेमाल कर ली जाए इन अपराधों को बयां करने के लिए हर शब्द कम है।ये
सब चलता आ रहा है हम सुनते आ रहे हैं और ख़बर की तरह अगली शाम भूल जाते हैं
क्यूँकि फर्क तब ही पड़ता है जब अपनी ज़िन्दगी में उथल पुथल मचती है।
ऐसे पापियों को सबक सिखाने के लिए कड़े कानून कब लाएंगे?क्यों इतना ढीला और सुस्त रवैय्या हर बार अपनाया जाता है।जल्द से जल्द
कार्यवाही और कड़ी जांच के बाद तुरंत मौत की सज़ा का प्रावधान होना चाहिए वो भी सबके सामने ताकि ख़ौफ़ बना रहे।
तो क्या कहें ?किसे दोष दें? किस ओर जा रहा है ये समाज?
बहुत ही गौरवशाली ,बलशाली, महाबली ,महापुरुषों और ज्ञानियों का देश है मेरा पर अफ़सोस की चेतना ही मर गयी है।
अब सोचिये की इतिहास पर गर्व करें, भविष्य से डरें या आज का ग़म करें क्यूँकि..... इन सिसकियों से मन सिहर उठता है।
एक इन्सां बनाया था मैंने ऐ धरती तेरे पालन पोषण के लिए
जाने कहाँ गुम हो गया और जीने लगा शोषण के लिए
कभी तेरा तो कभी मेरे नाम का करके बहाना
करता रहा मनमानी इस कदर जीने के लिए
ये धर्म -जात -ऊंच -नीच के जाल बुनता गया
और खुद ही फँस गया इनमें जलने के लिए.
मोहब्बत जो बनायी वो भेद भाव में दफ़्न हो गयी
कभी मुझे पत्थर बना दिया तो कभी तुझ पर पत्थर डाल दिया
जब यह भी लगा कुछ कम है तो.........
फिर कभी मेरे नाम तो तेरे नाम का करके बहाना
कितना ख़ून बहा दिया.
यह सब भी कितने अजीब हैं की पूछते हैं मुझसे
तू मेरा अल्लाह है या भगवान
फिर मुझे मुझसे ही अलग करके पूछते हैं
बता क्या है तेरा नाम
क्यों मुझको है तू काटता
जात- धर्म में छाँटता
कभी मेरी मूरत तो कभी तस्वीर बनाकर
दिल में रखे बैर मेरी ही परछाँई के लिए.
मैं तुझमें ही तो बस्ता था बन के लहू एक रंग का
न मैं सिक्ख, न इसाई,न हिन्दू न मुसलमां
"मैं तो कबसे तू ही था
हाँ वही तू जो था कभी इन्सां"
आ लूट ले मुझको और तबाह कर
न मैं तेरा अल्लाह, न तेरा भगवान्
तेरी ही ये सूरत है तेरा उजड़ा गुलिस्तान
बस आगे बढ़ और क़त्ल कर
ले रौंद ले मुझको सर चढ़कर
कभी तेरे समाज कभी रीति रिवाज़ का करके बहाना
न तुम जिए न वो जिए
इस क़दर...................
चुन-चुन के हैं तूने मेरे टुकड़े किये......................
बेगानी शादी के हम दीवाने दिल खोल कर नाचना गाना,पीना पिलाना और फिर खाना पसंद करते हैं। खाना अपने घर के फंक्शन का हो या किसी और की पार्टी का लज़ीज़ पकवानों से सुसज्जित जी ललचाता अपनी ओर खींच ही लेता है और इस ही खींचा तानी में बिगड़ जाता है बैलेंस कभी जेब का तो कभी प्लेट का।
आइये स्वागत है आपका शादियों के इस मौसम में। रीति रिवाज़ों से लेकर मेहमानों की ख़ातिरदारी तक,संगीत से लेकर बिदाई तक,कॉकटेल से लेकर बारात के स्वागत तक हर चीज़ आज एक प्रेस्टीज बन चुकी है।एक मिडिल क्लास भी 4 से 5 लाख रुपये सिर्फ केटरिंग में खर्च कर देता है इसके बाद भी सबको सबकुछ स्वादिष्ट नहीं लगता मीन मेक निकल ही जाते हैं।
चाहे कोई भी फंक्शन हो आपको आजकल मेन्यू में तरह तरह के डिशेस मिलते हैं मेहमानों के आगे परोसने के लिए पर क्या कभी आपने सोचा है तमाम दिखावा करके और इतना खर्चा करके कितनी वैराइटीज़ लोग चख पाते हैं उसकी आधी भी नहीं। इंडियन,इटालियन, चाइनीज़,कॉन्टिनेंटल,थाई,मुग़लई,अमेरिकन,मेक्सिकन जैसे ढेरों कुइज़ीनेस में से कम से कम 5 -7 डिशेस भी ले लें तो 40 -50 डिशेस हो गयीं इसके अलावा साइड स्नैक्स,स्वीट्स, ड्रिंक्स इतने फ्लेवर्स की आइसक्रीम्स फिर जाते-जाते पान का एक बीड़ा भी मुँह में रखना बनता है। सब मिलाकर 100 से ज़्यादा किस्म के व्यंजन आपके सामने हो जाते हैं उपस्थित। वैरायटी कम क्यों करें सक्सेना जी ने और अरोड़ा साहब ने भी तो कोई कमी नहीं छोड़ी थी आखिर नाक का सवाल है।
कुछ लोग जब किसी की शादी में जाते हैं तो जितने का गिफ्ट या कैश देते हैं उस हिसाब से खाकर आते हैं की "हमने तो 500 का नोट दिया है दो- चार डिशेस और खालो"
चाहे जगह प्लेट और पेट में हो या न हो। कुछ लोग तो ऐसे टूटते हैं खाने पे जैसे आज के बाद नहीं मिलेगा मक़सद ठूसना होता है जिसमें से कुछ बच भी गया तो फ़ेंक देंगे।और दूसरी ओर मेज़बान भी खाने के फिकने से गुरेज़ नहीं करते कोई लंगर या भंडारे का प्रसाद है क्या जिसे छोड़ने से पाप चढ़े इसीलिए शामियाने के बाहर कोई गरीब भिखारी भी आजाये तो उसे भूखा भगा दिया जाता है। इस बात पर शर्म किसी को नहीं आती की अंदर सब भरे पेट वाले इतना खाना प्लेटों में छोड़ रहे हैं।
बचपन में माँ बाप सिखाते हैं प्लेट में खाना छोड़ना बैड मैनर्स होता है।
अक्सर परिवारों में खाने से पहले और खाने के बाद ऊपर वाले का शुक्रिया अदा किया जाता है स्कूल में भी हमने सीखा और आज भी सिखाया
जाता है।
तो फिर सभ्य समाज की पार्टीज़ में ये क्या नज़ारा आप और हम बनाते हैं इतना खाना बर्बाद करके।ये वही दो जून की रोटी है जिसके लिए आप और हम दिन रात मेहनत करते हैं।
भारतीय शादियों में हर साल लगभग एक लाख करोड़ का खाना बेकार होता है।
कृषि उद्योग के अनुसार आपकी प्लेट तक पहुंचने से पहले ही 40 % अनाज सढ़ जाता है बुरे ट्रांसपोर्टेशन,स्टोरेज और सप्लाई चैन प्रोसेस की वजह से। ये काम तो है सरकार के ज़िम्मे पर हमारी क्या ज़िम्मेदारी है यही की शराब की तो एक बूँद भी बर्बाद न जाए पर खाना वो तो हर वक़्त खाते हैं घर में भी बाहर भी और इतना खाते हैं की बोर भी हो जाते हैं हम सोचते हैं की आज क्या खायें वो सोचते हैं की कैसे कहाँ से खायें पर आज भी हमारे देश का एक तिहाई हिस्सा भुखमरी का शिकार है विश्व भर में 800 मिलियन लोग हर रोज़ भूखे पेट ही सो जाते हैं क़ूड़े के ढेर के पास इस आस में जाते हैं की शायद कुछ इसमें से खाने को मिल जाए।
ज़रूरत है यह समझने की
खाना बर्बाद करना कोई
हमारा अधिकार नहीं कि हमने उसका पैसा भर दिया फिर चाहे छोड़ दो।
यह पूरे राष्ट्र का है इसमें किसान की दिन रात की मेहनत है और कितना अजीब है की जो किसान हमारे लिए अनाज बोता है वो आज भी खाली पेट भूखा सोने पे मजबूर है,साथ ही क़र्ज़ की वजह से आत्महत्या करने पर विवश है।
जर्मनी में ये कानून है की अगर किसी रेस्टोरेंट में भी आर्डर करके आपने फ़ूड वेस्ट किया तो आपको पेनल्टी लगेगी।
फ्रांस पहला ऐसा देश बन चूका है जिसने सुपरमार्केट्स और फ़ूड रिटेल चेन्स में बचा हुआ अनसोल्ड फ़ूड फेकने पर बैन लगाने का काम किया है इसके लिए फ़ूड बैंक्स बनाये हैं या चैरिटीज़ में खाना डोनेट कर दिया जाता है ऐसा न करने पर पेनल्टी देनी होती है।
तो क्या हर बात पे हमें कानून के डंडे की ज़रूरत है हर बात पे कोई हाँके तभी हम सुधरेंगे।
हमारे इंडिया में भी कुछ बड़े शहरों में लोग शादी या फंक्शन के बाद बचा हुआ खाना अनाथालयों,
NGO में भिजवा देते हैं या गरीबों में बटवा देते हैं।
Feeding India....Robin Hood Army...Let's Spread Love.....Gift A Meal In India ऐसी बहुत सी आर्गेनाईजेशन हैं जो वेस्ट फूड इकट्ठा करके ज़रूरतमंदों को देती हैं।
'Dont Waste Food' आजकल कुछ वैडिंग इनविटेशन पर ये भी लिखा जाने लगा है।
नोटबंदी के दौरान याद होगा आपको गुजरात के सूरत शहर में एक जोड़े ने कैश न होने की वजह से चाय पानी ही पिलाया अपने मेहमानों को, अब ये भी मुमकिन नहीं है की सिर्फ चाय पानी ही हर कोई पिलाये क्यूंकि शादी किसी त्यौहार से कम नहीं हमारे देश में पर हम सीमित डिशेस और क्वांटिटी रखके एक ट्रैंड शुरू कर सकते हैं।
और सबसे बड़ी बात जिस दिन आप खाने को अन्न के एक एक दाने को प्रसाद समझ कर खाएंगे और किसी को खिलाएंगे उस दिन न आपका बजट बिगड़ेगा न पेट न बर्बादी होगी खाने की न ही कोई गरीब भूखा मरेगा।
दाने दाने पे लिखा तेरा नाम है
यह कैसा विधि का विधान है
न जाने कितने भूखे पेट 'संतोषी' से मर जाते हैं
महफिलों में अक्सर रह जाते जूठे पकवान हैं ।
ख़ूबसूरत पड़ोसी यादें
कभी अचानक खटखटा जाती हैं
कुछ लमहों के दरवाज़े
की कोने में रखे एहसास खिल जाते हैं
घर की वो खिड़की जो तेरी एक मुस्कुराहट पे खुल जाती थी
आज भी तेरे हसने के अंदाज़ सी खड़कती रहती है।
ख़ूबसूरत पड़ोसी यादें
जब बहती चली आती हैं फ़िज़ाओं के साथ
महक जाती है चौखट भी
किसी ग़ुलाब की तरह
हाँ उस ही ग़ुलाब की तरह जो ज़ुल्फ़ों में तुम लगाती हो
होठों पे नज़र आता है
शर्माती हो तो गालों पर
रो दो तो रंग नैनों में उतर आता है।
ख़ूबसूरत पड़ोसी यादें
आईने सी आकर अक्स दिखाती हैं
कभी तुझको कभी खुद को देखा करता हूँ मैं
धुंधली सी वो शीशे पर चिपकी धूल
तेरी बिंदिया चूड़ी की बातें कर चिढ़ाती है।
ख़ूबसूरत पड़ोसी यादें
बंद डिब्बे में शक्कर सी पड़ी हैं
तेरे हाथों का स्वाद
रसोई में रखे बर्तनों पर भी चढ़ा था
मसाले दानी की कहानी
बरनी को धूप सी लगाती है।
ख़ूबसूरत पड़ोसी यादें
टकटकी लगाए छत पर
गिनती हैं तारे आज भी
टिमटिमाती जलती बुझती
जुगनू सी सपने लेकर
हक़ीक़त के अंधेरों से निकलकर
हाथ थाम चांदनी का
ले जाती हैं चहचहाती हुयी
तेरी आवाज़ की उस डाली पर
जहाँ वो दो परिंदे आया करते थे।
ख़ूबसूरत पड़ोसी यादें
आज भी मशरूफ़ियत में
महसूस करता रहता हूँ
बड़ी एहतियात से महफ़ूज़ रखी हैं
संदूक में बालियाँ तेरी
वो रसीद भी है जो पुराने कोट में पड़ी थी
वो तारीख़ लिखी
आज भी ज़िंदा कर देती है
तेरी मख़मली ख़ूबसूरत पड़ोसी यादें।
एक ऐसा दिन जिसे किसी ख़ास डे की तरह याद करने की ज़रूरत नहीं है। यह तो रोज़ होता है शरीर की एक ज़रूरी प्रक्रिया है शौचालय में जाना पर कितने लोगों को आज भी यह सुविधा मिली हुयी है क्या आप जानते हैं?बहुत से लोगों को तो पता भी नहीं की विश्व शौचालय दिवस भी होता है 19 नवंबर को। आज तो मैं भी भूल गयी थी सुबह का अख़बार पढ़ा तो कुछ कहीं था ही नहीं ये तो भला हो सोशल नेटवर्किंग साइट्स का की देख लिया आज "वर्ल्ड टॉयलेट डे" है।
अभी अभी तो अक्षय कुमार और भूमि पेडनेकर की फिल्म आयी थी टॉयलेट एक प्रेम कथा तो भी लोग भूल गए इतना महत्वपूर्ण दिन। ओह ! हाँ फिल्म हिट नहीं हुयी शायद सबके दिमाग में कोई फालतू की अंरेयलिस्टिक एक्शन या रोमांटिक फिल्म होती तो खूब याद होती इस भीड़ में मैं भी शामिल हूँ क्यूंकि आदत में शुमार है वैलेंटाइन डे या फ्रेंडशिप डे मनाना। हम और आप जैसे जिन लोगों को बचपन से ही शौचालय की सुविधा मिली हो वो कैसे जान पाएंगे की यह समस्या भारत में बहुत बड़ी और चिंताजनक है। क्रिकेट के खेल में भारत पाकिस्तान को जब हराता है तो खूब उछलते और ख़ुशी मनाते हैं आप पर क्या आपको पता है साफ़ शौचालय के मामले में भारत से आगे है पाकिस्तान :)
आज भी देश के 58% लोग खुले में शौच करते हैं। विश्व भर में 260 करोड़ लोगों के पास स्वच्छ सुविधाजनक शौचालय की व्यवस्था नहीं है। इन सब में सबसे ज़्यादा दिक्कत होती है महिलाओं और बच्चियों को। कितनी ऐसी गरीब लड़कियां हैं जो स्कूलों में शौचालयों के न होने की वजह से अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाती हैं। साथ ही साथ छेड़ छाड़ व बलात्कार जैसे घिनोने हादसों से भी रोज़ गुज़ारती हैं।
"अँधेरा होने का इंतज़ार करती हैं वो आँखें
जिन्हे घर की रौनक कहा जाता है
खुले में शौच जाने को मजबूर माँ बेटियों को
घूंघट से शर्म का पाठ पढ़ाया जाता है "
आपने अगर टॉयलेट फिल्म नहीं देखी है तो ज़रूर देखिएगा कैसे उसमें सच्चाई और लोगों की सोच दिखाई गयी है। सत्य घटना पर आधारित कैसे साल 2012 में प्रियंका भारती नाम की एक बहू खुले में शौच की वजह से शादी के अगले दिन ससुराल छोड़ कर आजाती है अपने इस क़दम से प्रियंका ने न केवल अपने लिए बल्कि गांव की और महिलाओं के लिए भी शौचालय का निर्माण कराने का काम किया। इसीलिए मैं हमेशा यह मानती हूँ किसी भी तरह का कहीं का भी स्वच्छ अभियान हो पहले ज़रूरत है सोच को स्वच्छ करने की और जागरूक होने की। खुले में शौच करना न सिर्फ बीमारियों का कारण है बल्कि इससे एक स्त्री के मान सम्मान को भी ठेस पहुंचती है। चाहे सुरक्षा कारण हो या शर्म यह अधिकार की बात है।
सुलभ शौचालय का नाम तो आपने सड़को पर हर शहर और गाँव में देखा ही होगा यह एक इंटरनेशनल सोशल सर्विस आर्गेनाईजेशन है जिसकी नीव डॉक्टर पाठक ने 1974 में बिहार में रखी थी। इस संस्थान से करीब 50,000 स्वयंसेवक जुड़े हुए हैं।
Dr. Bindeshwar Pathak
The Great Man Behind this Reform
Sociologist, social activist, and Founder of Sulabh Sanitation. Dr. Pathak believes the toilet is a tool for
social change.
भारत के प्रधानमंत्री द्वारा चलाया गया स्वच्छ भारत अभियान यह भी एक अहम मुद्दा है जिसकी पहल हमें और आपको ही करनी होगी।एक तरफ टॉयलेट न होने की समस्या और एक समस्या यह कि सार्वजनिक शौचालय कितने साफ़ रहते हैं चाहे ट्रैन हो या कोई भी पब्लिक प्लेस। ज़्यादातर तो यह सोच के इस्तेमाल करने के बाद बिना साफ़ करे चले जाते हैं की अब तो हमें जाना नहीं यहाँ जो भी आये हमें क्या। अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता। पर ऐसा करते वक़्त लोग यह नहीं सोचते की इस सोच की वजह से ही तो गंदगी हर तरफ इतनी ज़्यादा है फिर नाक मुँह बनाकर हम दुसरे को गलत ठहराते हैं।
"अब खुले में शौच नहीं
लोटा बाल्टी और नहीं
इज़्ज़त घरों का करो निर्माण
खुद को दो सुरक्षित सम्मान "।