Monday, November 27, 2017

ज़रा हज़म कीजिये


बेगानी शादी के हम दीवाने दिल खोल कर नाचना गाना,पीना पिलाना  और फिर खाना पसंद करते हैं। खाना अपने घर के फंक्शन का हो या किसी और की पार्टी का लज़ीज़ पकवानों से सुसज्जित जी ललचाता अपनी ओर खींच ही लेता है और इस ही खींचा तानी में बिगड़ जाता है बैलेंस कभी जेब का तो कभी प्लेट का।

आइये स्वागत है आपका शादियों के इस मौसम में। रीति रिवाज़ों से लेकर मेहमानों की ख़ातिरदारी तक,संगीत से लेकर बिदाई तक,कॉकटेल से लेकर बारात के स्वागत तक हर चीज़ आज एक प्रेस्टीज बन चुकी है।एक मिडिल क्लास भी 4 से 5 लाख रुपये सिर्फ केटरिंग में खर्च कर देता है इसके बाद भी सबको सबकुछ स्वादिष्ट नहीं लगता मीन मेक निकल ही जाते हैं।
चाहे कोई भी फंक्शन हो आपको आजकल मेन्यू में तरह तरह के डिशेस मिलते हैं मेहमानों के आगे परोसने के लिए पर क्या कभी आपने सोचा है तमाम दिखावा करके और इतना खर्चा करके कितनी वैराइटीज़ लोग चख पाते हैं उसकी आधी भी नहीं। इंडियन,इटालियन, चाइनीज़,कॉन्टिनेंटल,थाई,मुग़लई,अमेरिकन,मेक्सिकन जैसे ढेरों कुइज़ीनेस में से कम से कम 5 -7  डिशेस भी ले लें तो 40 -50  डिशेस हो गयीं इसके अलावा साइड स्नैक्स,स्वीट्स, ड्रिंक्स इतने फ्लेवर्स की आइसक्रीम्स फिर जाते-जाते पान का एक बीड़ा भी मुँह में रखना बनता है। सब मिलाकर 100 से ज़्यादा किस्म के व्यंजन आपके सामने हो जाते हैं उपस्थित। वैरायटी कम क्यों करें सक्सेना जी ने और अरोड़ा साहब ने भी तो कोई कमी नहीं छोड़ी थी आखिर नाक का सवाल है।

कुछ लोग जब किसी की शादी में जाते हैं तो जितने का गिफ्ट या कैश देते हैं उस हिसाब से खाकर आते हैं की "हमने तो 500  का नोट दिया है दो- चार डिशेस और खालो"
 चाहे जगह प्लेट और पेट में हो या न हो। कुछ लोग तो ऐसे टूटते हैं खाने पे जैसे आज के बाद नहीं मिलेगा मक़सद ठूसना होता है जिसमें से कुछ बच भी गया तो फ़ेंक देंगे।और दूसरी ओर मेज़बान भी खाने के फिकने से गुरेज़ नहीं करते कोई लंगर या भंडारे का प्रसाद है क्या जिसे छोड़ने से पाप चढ़े इसीलिए शामियाने के बाहर कोई गरीब भिखारी भी आजाये तो उसे भूखा भगा दिया जाता है। इस बात पर शर्म किसी को नहीं आती की अंदर सब भरे पेट वाले इतना खाना प्लेटों में छोड़ रहे हैं।

बचपन में माँ बाप सिखाते हैं प्लेट में खाना छोड़ना बैड मैनर्स होता है।
अक्सर परिवारों में खाने से पहले और खाने के बाद ऊपर वाले का शुक्रिया अदा  किया जाता है स्कूल में भी हमने सीखा और आज भी सिखाया
जाता है

 
तो फिर सभ्य समाज की पार्टीज़ में ये क्या नज़ारा आप और  हम बनाते हैं इतना खाना बर्बाद करके।ये वही दो जून की रोटी है जिसके लिए आप और हम दिन रात मेहनत करते हैं 
 
भारतीय शादियों में हर साल लगभग एक लाख करोड़ का खाना बेकार होता है।
कृषि उद्योग के अनुसार आपकी प्लेट तक पहुंचने से पहले ही 40 % अनाज सढ़ जाता है बुरे ट्रांसपोर्टेशन,स्टोरेज और सप्लाई चैन प्रोसेस की वजह से। ये काम तो है सरकार के ज़िम्मे पर हमारी क्या ज़िम्मेदारी है यही की शराब की तो एक बूँद भी बर्बाद न जाए पर खाना वो तो हर वक़्त खाते हैं घर में भी बाहर भी और इतना खाते हैं की बोर भी हो जाते हैं हम सोचते हैं की आज क्या खायें वो सोचते हैं की कैसे कहाँ से खायें पर आज भी हमारे देश का एक तिहाई हिस्सा भुखमरी का शिकार है  विश्व  भर में 800 मिलियन लोग हर रोज़ भूखे पेट ही सो जाते हैं  क़ूड़े के ढेर के पास इस आस में जाते हैं की शायद कुछ इसमें से खाने को मिल जाए।















 ज़रूरत है यह समझने की
 खाना बर्बाद करना कोई 
 हमारा अधिकार नहीं कि हमने उसका पैसा भर दिया  फिर चाहे छोड़ दो। 
यह पूरे राष्ट्र का है इसमें किसान की दिन रात की मेहनत है और कितना अजीब है की जो किसान हमारे लिए अनाज बोता  है वो आज भी खाली पेट भूखा सोने पे मजबूर है,साथ ही क़र्ज़ की वजह से आत्महत्या करने पर विवश है

जर्मनी में ये कानून है की अगर किसी रेस्टोरेंट में भी आर्डर करके आपने फ़ूड वेस्ट किया तो आपको पेनल्टी  लगेगी।
फ्रांस पहला ऐसा देश बन चूका है जिसने सुपरमार्केट्स और फ़ूड रिटेल चेन्स  में बचा हुआ अनसोल्ड  फ़ूड फेकने पर बैन लगाने का काम किया है इसके लिए फ़ूड बैंक्स बनाये हैं या चैरिटीज़ में खाना डोनेट कर दिया जाता है ऐसा न करने पर पेनल्टी देनी होती है
तो क्या हर बात पे हमें कानून के डंडे की ज़रूरत है हर बात पे कोई हाँके तभी हम सुधरेंगे।
हमारे इंडिया में भी कुछ बड़े शहरों में लोग शादी या फंक्शन के बाद बचा हुआ खाना अनाथालयों,
NGO में भिजवा देते हैं या गरीबों में बटवा देते हैं।
Feeding India....Robin Hood Army...Let's Spread Love.....Gift A Meal In India ऐसी बहुत सी आर्गेनाईजेशन हैं जो वेस्ट फूड इकट्ठा करके ज़रूरतमंदों को देती हैं।
'Dont Waste Food' आजकल कुछ वैडिंग  इनविटेशन पर ये भी लिखा जाने लगा है।
नोटबंदी के दौरान याद होगा आपको गुजरात के सूरत शहर में एक जोड़े ने कैश न होने की वजह से चाय पानी ही पिलाया अपने मेहमानों को, अब ये भी मुमकिन नहीं है की सिर्फ चाय पानी ही हर कोई पिलाये क्यूंकि शादी किसी त्यौहार से कम नहीं हमारे देश में पर हम सीमित डिशेस और क्वांटिटी रखके एक ट्रैंड शुरू कर सकते हैं।
और सबसे बड़ी बात जिस दिन आप खाने को अन्न के एक एक दाने को प्रसाद समझ कर खाएंगे और किसी को खिलाएंगे उस दिन न आपका बजट बिगड़ेगा न पेट न बर्बादी होगी खाने की न ही कोई गरीब भूखा मरेगा
दाने दाने पे लिखा तेरा नाम है 
यह कैसा विधि का विधान है 
न जाने कितने भूखे पेट 'संतोषी' से मर जाते हैं 
महफिलों में अक्सर  रह जाते जूठे पकवान हैं



















Thursday, November 23, 2017

ख़ूबसूरत पड़ोसी यादें



ख़ूबसूरत पड़ोसी यादें
कभी अचानक खटखटा जाती हैं
कुछ लमहों के दरवाज़े
की कोने में रखे एहसास खिल जाते हैं
घर की वो खिड़की जो तेरी एक मुस्कुराहट  पे खुल जाती थी
आज भी तेरे हसने के अंदाज़ सी खड़कती रहती है।

ख़ूबसूरत पड़ोसी यादें
जब बहती चली आती हैं फ़िज़ाओं के साथ
महक जाती है चौखट भी
किसी ग़ुलाब की तरह
हाँ उस ही ग़ुलाब की तरह जो ज़ुल्फ़ों में तुम लगाती हो
होठों पे नज़र आता है
शर्माती हो तो गालों पर
रो दो तो रंग नैनों में उतर आता है।

ख़ूबसूरत पड़ोसी यादें
आईने सी आकर अक्स दिखाती हैं
कभी तुझको कभी खुद को देखा करता हूँ मैं
धुंधली सी वो शीशे पर चिपकी धूल
तेरी बिंदिया चूड़ी की बातें कर चिढ़ाती है।

ख़ूबसूरत पड़ोसी यादें
बंद डिब्बे में शक्कर सी पड़ी हैं
तेरे हाथों का स्वाद
रसोई में रखे बर्तनों पर भी चढ़ा था
मसाले दानी की कहानी
बरनी को धूप सी लगाती है।

ख़ूबसूरत पड़ोसी यादें
टकटकी लगाए छत पर
गिनती हैं तारे आज भी
टिमटिमाती जलती बुझती
जुगनू सी सपने लेकर
हक़ीक़त के अंधेरों से निकलकर
हाथ थाम चांदनी का
ले जाती हैं चहचहाती हुयी
तेरी आवाज़ की उस डाली पर
जहाँ वो दो परिंदे आया करते थे।

ख़ूबसूरत पड़ोसी यादें
आज भी मशरूफ़ियत में
महसूस करता रहता हूँ
बड़ी एहतियात से महफ़ूज़  रखी हैं
संदूक में बालियाँ तेरी
वो रसीद भी है जो पुराने कोट में पड़ी थी
वो तारीख़ लिखी
आज भी ज़िंदा कर देती है
तेरी मख़मली ख़ूबसूरत पड़ोसी यादें।


































Sunday, November 19, 2017

WORLD TOILET DAY




एक ऐसा दिन जिसे किसी ख़ास डे की तरह याद करने की ज़रूरत नहीं है। यह तो रोज़ होता है शरीर की एक ज़रूरी प्रक्रिया है शौचालय में जाना पर कितने लोगों को आज भी यह सुविधा मिली हुयी है क्या आप जानते हैं?बहुत से लोगों को तो पता भी नहीं की विश्व शौचालय दिवस भी होता है 19 नवंबर को। आज तो मैं भी भूल गयी थी सुबह का अख़बार पढ़ा तो कुछ कहीं था ही नहीं ये तो भला हो सोशल नेटवर्किंग साइट्स का की देख लिया आज "वर्ल्ड टॉयलेट डे" है।
अभी अभी तो अक्षय कुमार और भूमि पेडनेकर की फिल्म आयी थी टॉयलेट एक प्रेम कथा तो भी लोग भूल गए इतना महत्वपूर्ण दिन। ओह ! हाँ फिल्म हिट नहीं हुयी शायद सबके दिमाग में कोई फालतू की अंरेयलिस्टिक  एक्शन या रोमांटिक फिल्म होती तो खूब याद होती इस भीड़ में मैं भी शामिल हूँ क्यूंकि  आदत में शुमार है वैलेंटाइन डे या फ्रेंडशिप डे मनाना। हम और आप जैसे जिन लोगों को बचपन से ही शौचालय की सुविधा मिली हो वो कैसे जान पाएंगे की यह समस्या भारत में बहुत बड़ी और चिंताजनक है। क्रिकेट के खेल में भारत पाकिस्तान को जब हराता है तो खूब उछलते और ख़ुशी मनाते हैं  आप पर क्या आपको पता है साफ़ शौचालय के मामले में भारत से आगे है पाकिस्तान :)





आज भी देश के 58% लोग खुले में शौच करते हैं। विश्व भर में 260 करोड़ लोगों के पास स्वच्छ सुविधाजनक शौचालय की व्यवस्था नहीं है। इन सब में सबसे ज़्यादा दिक्कत होती है महिलाओं और बच्चियों को। कितनी ऐसी गरीब लड़कियां हैं जो स्कूलों में शौचालयों के न होने की वजह से अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाती हैं। साथ ही साथ छेड़ छाड़ व बलात्कार जैसे घिनोने हादसों से भी रोज़ गुज़ारती हैं।

"अँधेरा होने का इंतज़ार करती हैं वो आँखें 
जिन्हे घर की रौनक कहा जाता है 
खुले में शौच जाने को मजबूर माँ बेटियों को 
घूंघट से शर्म का पाठ पढ़ाया जाता है "

 
आपने अगर टॉयलेट फिल्म नहीं देखी है तो ज़रूर देखिएगा कैसे उसमें सच्चाई और लोगों की सोच दिखाई गयी है। सत्य घटना पर आधारित कैसे साल 2012  में प्रियंका भारती नाम की एक बहू खुले में शौच की वजह से शादी के अगले दिन ससुराल छोड़ कर आजाती है अपने इस क़दम से प्रियंका ने न केवल अपने लिए बल्कि गांव की और महिलाओं के लिए भी शौचालय का निर्माण कराने का काम किया। इसीलिए मैं हमेशा यह मानती हूँ किसी भी तरह का कहीं का भी स्वच्छ अभियान हो पहले ज़रूरत है सोच को स्वच्छ करने की और जागरूक होने की। खुले में शौच करना न सिर्फ बीमारियों का कारण है बल्कि इससे एक स्त्री के मान सम्मान को भी ठेस पहुंचती है। चाहे सुरक्षा कारण हो या शर्म यह अधिकार की बात है।


सुलभ शौचालय का नाम तो आपने सड़को पर हर शहर और गाँव में देखा ही होगा यह एक इंटरनेशनल सोशल सर्विस आर्गेनाईजेशन है जिसकी नीव डॉक्टर पाठक ने 1974 में बिहार में रखी थी। इस संस्थान से करीब 50,000 स्वयंसेवक जुड़े हुए हैं।

Dr. Bindeshwar Pathak
 


The Great Man Behind this Reform
Sociologist, social activist, and Founder of Sulabh Sanitation. Dr. Pathak believes the toilet is a tool for social change.





भारत के प्रधानमंत्री द्वारा चलाया गया स्वच्छ भारत अभियान यह भी एक अहम मुद्दा है जिसकी पहल हमें  और आपको ही करनी होगी।एक तरफ टॉयलेट न होने की समस्या और एक समस्या यह कि सार्वजनिक शौचालय कितने साफ़ रहते हैं चाहे ट्रैन हो या कोई भी पब्लिक प्लेस। ज़्यादातर तो यह सोच के इस्तेमाल करने के बाद बिना साफ़ करे चले जाते हैं की अब तो हमें जाना नहीं यहाँ जो भी आये हमें क्या। अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता। पर ऐसा करते वक़्त लोग यह नहीं सोचते की इस सोच की वजह से ही तो गंदगी हर तरफ इतनी ज़्यादा है फिर नाक मुँह बनाकर हम दुसरे को गलत ठहराते हैं।

 

"अब खुले में शौच नहीं 
लोटा बाल्टी और नहीं 
इज़्ज़त घरों का करो निर्माण 
खुद को दो सुरक्षित सम्मान "











Monday, November 13, 2017

शर्म या गर्व !


Happy Children's Day


अपने बचपन को आप आज भी हस्ते मुस्कुराते याद कर लिया करते होंगे।
अक्सर कहते हैं सब की बड़े सुहाने थे बचपन के दिन मनमानी की छत पर बैठे तारे गिनते और दिन में सपने देखते कब वक़्त बीत गया पता ही नहीं चला वो बेफिक्री थी माँ की गोद में पापा से मिली पॉकेट मनी से ही शौक पूरे हो जाया करते थे खेल-खिलोने,स्कूल-किताबें,पकवान-फरमाइशें नींद-सुकून, न घर सँभालने की चिंता न कमाकर खाने की। बड़ा ही आनंद आता है सोचकर की काश वो बचपन लौट आये। पर हर किसी की किस्मत एक जैसी नहीं होती। जाने कितने ऐसे बच्चे हैं जिनका बचपन तसल्ली की चादर ओढ़ कर नहीं गुज़र पाया। गरीबी और बेबसी का यह जीता जागता उदाहरण सिर्फ भारत में ही नहीं विश्व भर में हम देख सकते हैं।

पग पग चलते हाथ पसारे 
रोज़ी रोटी को दूर निहारे
कितने छोटू मुन्नी देखो
फिरते रहते द्वारे द्वारे
कुछ कहते पिछले कर्म हैं इनके
तभी हैं करते काम हमारे
बाल श्रम का भत्ता देके
क्या धूल जाते हैं पाप हमारे?


विश्व भर में गरीबी की यह बीमारी मुख्य कारण है मौतों का। दुनियां का एक तिहाई हिस्सा जो भुखमरी से प्रभावित है वो भारत में ही बस्ता है। जीने की मजबूरी है जिसका एक नाम बाल मज़दूरी है

 14 November नेहरू जी के जन्मदिवस को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है यह पूरा दिन बच्चों को समर्पित है और जिस उद्देश्य के साथ यह जयंती मनाई जाती है वो सिर्फ हम आप जैसे लोगों के लिए ही मुमकिन है क्यूँकि हमारे घरों के बच्चे पिज़्ज़ा बर्गर, यू ट्यूब व्हाट्स एप्प, गेम्स कार्टून्स,मॉल्स थिएटर्स,सेल्फीज़ से इसे सेलिब्रेट कर सकते हैं पर वाकई में क्या इस बाल जयंती की दूरदर्शिता किसी ने समझी थी। मूलभूत सुविधाएं ही जब नहीं मिल पा रहीं तो कैसे बाल मज़दूरी की इस लम्बी दूरी को तय किया जायेगा?
14  वर्ष से कम  की आयु के बच्चों से काम करवाने को बाल मज़दूरी कहा जाता है। आंकड़ों के हिसाब से पूरे भारत में करोड़ों बच्चे मज़दूरी करते हैं जिनकी उम्र 5 से 14 साल के बीच है।
गरीबी ही तो है जिसकी वजह से आभाव है शिक्षा का पोषण का और इनके प्रति हमारे आपके भाव का भी। क्यूँकि "जीवन का एक अभाव ..........सामने वाले का भाव बदलदेता है।" 
बड़े शहरों के साथ-साथ छोटे शहरों में भी कई बच्चे हालातों के चलते बाल मज़दूरी की गिरफ्त में आ चुके हैं। और यह बात सिर्फ बाल मज़दूरी तक ही सीमि‍त नहीं है इसके साथ ही बच्चों को कई घिनौने कुकृत्यों का भी सामना करना पड़ता है। जिनका बच्चों के मासूम मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है।
हर तरह से शोषण किया जाता है कुछ गावों और छोटे कस्बों में तो हालत यह है की बच्चे पड़ने तो जाते हैं स्कूल पर वहां या तो उनसे स्कूल की साफ़ सफाई कराई जाती है या वहां से उन्हें किसी और के यहाँ मज़दूरी करने भेज दिया जाता है आमदनी होती है तो परिवारों को भी कोई ऐतराज़ नहीं होता।दुकानों पर ढाबों पर घरों में ऐसे कितने बाल मज़दूर हैं जिनका जीवन झाड़ू पोछे बर्तन कपडे और दूसरों के बच्चों को पालने में लगता है।कानूनी अपराध तो है यह पर फिर भी लोग छुपते छुपाते यह करते हैं और तर्क होता है की कम से कम हम इन्हे काम तो दे रहे हैं खाना दे रहे हैं  वरना भीख मांगेंगे।

तो क्या यही तरीका है ऐसे बच्चों का पेट भरने का गरीबी के तमगे के साथ नौकर या बंदुआ मज़दूर होना ही होगा अभी तक तो यही रीत चली आ रही है।चाइल्ड लेबर पर कुछ फिल्म्स भी बॉलीवुड में आईं सबसे पहले 1954 में 'बूट पोलिश' आयी थी जिसमें दिखाया गया था की कैसे माँ बाप की मौत के बाद बच्चे मजबूर होते हैं कमाने और खाने के लिए Slumdog Millionaire,I Am Kalam,Chillar Party,Stanley ka Dabba जैसी मूवीज़ ऐसी ही तस्वीर दिखाती हैं।
सरकार ने योजनाएं बनायीं कानून बनाये कदम सही उठाये पर रास्ता तय कैसे हो ?
जबतक ऐसे गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा,मिड डे मील्स,और सर पे छत नहीं मिलेगी तब तक यह यूँही भटकते रहेंगे कुछ  भूख से मरेंगे तो कुछ गलत या खतरनाक काम करके भूख को मारेंगे।

छोटे छोटे हाथ से
कंपकंपाती आंत से
मौसम की मुसीबत के यह मारे 
संतोषी जैसे कितने बालक
हो जाते भगवन को प्यारे।



ऐसे बहुत से NGO's हैं जो गरीब बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं।दिल्ली के युवा एनजीओ में मैं गयी थी एक बार वहां के बच्चों से मिलकर मुझे बिलकुल ऐसा नहीं लगा की उनमें शिष्टाचार की कोई कमी है हम सब एक दुसरे से मिलकर बहुत खुश हुए और देखने के बाद यह निश्चित हो गया की अगर क़दम उठाये जायें मदद के हाथ बढ़ाये जायें तो सिर्फ़  इन गरीब बच्चों का ही नहीं देश का भविष्य उज्जवल होगा।



                      जिस दिन हर बच्चा देश का खुश होगा,
                      उस दिन गर्व करियेगा और कहियेगा
                                                        
                          Happy Children's Day





Thursday, November 9, 2017

धुंध ही धुंध



यह धुआं धुआं सा रहने दो मुझे दिल की बात कहने दो
मैं पागल दीवाना तेरा मुझे इश्क़ की आग में जलने दो.... 


दिल्ली का हाल देखकर यह गाने के बोल याद गए यह इश्क़ ही तो है ज़्यादा पैसा कमाने से सुविधाओं से और उनपर इतनी मनमानियों से की गैजेट्स और हर तरह के नए उत्पाद इस्तेमाल करने के चक्कर में इतना उत्पात मचा दिया हम सबने। एक चक्र है जो आपस में हर बात को जोड़ता हुआ चलता है। दिल्ली जहाँ रोज़ इतनी तादाद में लोग अलग अलग जगहों से पहुंचते हैं कुछ पड़ने के लिए तो कुछ नौकरी की तलाश में हम भी गए थे और कुछ साल वहां गुज़ारे और हर दुसरे इंसान का आना जाना तो कभी बस जाना राजधानी में लगा ही रहता है। सभी पोलिटिकल काम, मीडिया ऑफिसेस, फैक्ट्रीज इंडस्ट्रीज़, ओपोर्चुनिटीज़,बीपिओस,मार्केटिंग एडवरटाइजिंग एजेंसीज, मीटिंग्स, ब्रांड्स,टेक्नोलॉजीज सब का हब है। मुंबई जाना हर किसी का इतना आसान नहीं होता जितना दिल्ली क्यूंकि अब दिल्ली दूर नहीं। इतने लोगों का जमावड़ा जब लगेगा तो प्रदुषण तो होगा ही और कारण भारत की आबादी। अब जितने सदस्य बढ़ते जायेंगे ज़रूरतें भी बढ़ेंगी जिनमें घर बनाना, ऑफिस बनाना, शॉपिंग करना, नए कपड़े सामान खरीदना,ट्रक्स का आना जाना,एक घर में 3-5 गाड़ियां होना, सबके अलग मित्र होना,अलग अलग फ्लैट्स खरीदना,अलग रिश्तेदार होना उनका आना जाना, पार्टीज करना,पर्सनल गाड़ियों से टूर प्लान करना,गाड़ियों का पटाखों का फैक्ट्रीज का प्रदुषण किसानों का पराल जलाना ये सब मिले जुले कारण हैं। 


तो फिर किया क्या जाए हमारे इस भौतिकवादी इश्क़ का जिसकी लत हमें लग गयी है क्यूंकि आधुनिकरण में सभी इलेक्ट्रिकल एप्लायंसेज कम्प्यूटर्स मोबाइल फ़ोन्स,गाड़ियां सब शामिल हो जाते हैं जिनपर हम सभी की जीवनशैली निर्भर हो चुकी है फिर चाहे दिल्ली हो या कोई भी देश। इस आपाधापी के माहौल में धुंध भरे समाज में वातावरण के कल्याण के लिए क्यों न खुद से एक पहल करी जाए जिससे आने वाला कल थोड़ा साफ़ दिखाई दे और सरकारों को भी चाहिए की नए नए डेवलपमेंट्स या दुसरे देशों से आगे चलने की होड़ में बुलेट ट्रैन जैसी बेकार की योजनाओं पर करोड़ों रूपये खर्च करने की बजाये वर्तमान में चल रही नीतियों और पुरानी योजनाओं को क्रियान्वित कर सही से पहले लागु किया जाए। क्यों न स्मार्ट सिटी के साथ साथ स्मार्ट गांव स्मार्ट कसबे भी बनाये जाएँ जिससे पलायन भी रुकेगा रोज़गार भी बढ़ेगा शहरों में बढ़तीं आबादी का दबाव भी कम 
होगा।

अगर ऐसा ही चलता रहा तो हम इस सृष्टि को खुद ही नष्ट कर देंगे ऐसा ही  सन्देश देती हुई  हाल ही में टाइगर श्रॉफ की फिल्म आयी थी फ्लाइंग जट्ट आज हालत यह है की मास्क पहनकर बाहर  निकलना पड़ रहा है एयर प्यूरीफायर लगाने की सलाह दे रहे हैं एक्सपर्ट्स जो सबके बस की बात तो नहीं हैपहले ही  हम साफ़ पानी खरीद कर पीने के लिए मजबूर हैं अब साफ़ हवा भी खरीदने को मजबूर हो गए हैं यह कैसा विकास का मॉडल हम और आप तैयार कर रहे हैं अपने आने वाले कल के लिए जहाँ सिर्फ धुंध ही धुंध है