Happy Children's Day
अक्सर कहते हैं सब की बड़े सुहाने थे बचपन के दिन मनमानी की छत पर बैठे तारे गिनते और दिन में सपने देखते कब वक़्त बीत गया पता ही नहीं चला वो बेफिक्री थी माँ की गोद में पापा से मिली पॉकेट मनी से ही शौक पूरे हो जाया करते थे खेल-खिलोने,स्कूल-किताबें,पकवान-फरमाइशें नींद-सुकून, न घर सँभालने की चिंता न कमाकर खाने की। बड़ा ही आनंद आता है सोचकर की काश वो बचपन लौट आये। पर हर किसी की किस्मत एक जैसी नहीं होती। जाने कितने ऐसे बच्चे हैं जिनका बचपन तसल्ली की चादर ओढ़ कर नहीं गुज़र पाया। गरीबी और बेबसी का यह जीता जागता उदाहरण सिर्फ भारत में ही नहीं विश्व भर में हम देख सकते हैं।

रोज़ी रोटी को दूर निहारे
कितने छोटू मुन्नी देखो
फिरते रहते द्वारे द्वारे
कुछ कहते पिछले कर्म हैं इनके
तभी हैं करते काम हमारे
बाल श्रम का भत्ता देके
क्या धूल जाते हैं पाप हमारे?
विश्व भर में गरीबी की यह बीमारी मुख्य कारण है मौतों का। दुनियां का एक तिहाई हिस्सा जो भुखमरी से प्रभावित है वो भारत में ही बस्ता है। जीने की मजबूरी है जिसका एक नाम बाल मज़दूरी है।
14 November नेहरू जी के जन्मदिवस को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है यह पूरा दिन बच्चों को समर्पित है और जिस उद्देश्य के साथ यह जयंती मनाई जाती है वो सिर्फ हम आप जैसे लोगों के लिए ही मुमकिन है क्यूँकि हमारे घरों के बच्चे पिज़्ज़ा बर्गर, यू ट्यूब व्हाट्स एप्प, गेम्स कार्टून्स,मॉल्स थिएटर्स,सेल्फीज़ से इसे सेलिब्रेट कर सकते हैं पर वाकई में क्या इस बाल जयंती की दूरदर्शिता किसी ने समझी थी। मूलभूत सुविधाएं ही जब नहीं मिल पा रहीं तो कैसे बाल मज़दूरी की इस लम्बी दूरी को तय किया जायेगा?
14 वर्ष से कम की आयु के बच्चों से काम करवाने को बाल मज़दूरी कहा जाता है। आंकड़ों के हिसाब से पूरे भारत में करोड़ों बच्चे मज़दूरी करते हैं जिनकी उम्र 5 से 14 साल के बीच है।
गरीबी ही तो है जिसकी वजह से आभाव है शिक्षा का पोषण का और इनके प्रति हमारे आपके भाव का भी। क्यूँकि "जीवन का एक अभाव ..........सामने वाले का भाव बदलदेता है।"
बड़े शहरों के साथ-साथ छोटे शहरों में भी कई बच्चे हालातों के चलते बाल मज़दूरी की गिरफ्त में आ चुके हैं। और यह बात सिर्फ बाल मज़दूरी तक ही सीमित नहीं है इसके साथ ही बच्चों को कई घिनौने कुकृत्यों का भी सामना करना पड़ता है। जिनका बच्चों के मासूम मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है।
हर तरह से शोषण किया जाता है कुछ गावों और छोटे कस्बों में तो हालत यह है की बच्चे पड़ने तो जाते हैं स्कूल पर वहां या तो उनसे स्कूल की साफ़ सफाई कराई जाती है या वहां से उन्हें किसी और के यहाँ मज़दूरी करने भेज दिया जाता है आमदनी होती है तो परिवारों को भी कोई ऐतराज़ नहीं होता।दुकानों पर ढाबों पर घरों में ऐसे कितने बाल मज़दूर हैं जिनका जीवन झाड़ू पोछे बर्तन कपडे और दूसरों के बच्चों को पालने में लगता है।कानूनी अपराध तो है यह पर फिर भी लोग छुपते छुपाते यह करते हैं और तर्क होता है की कम से कम हम इन्हे काम तो दे रहे हैं खाना दे रहे हैं वरना भीख मांगेंगे।
तो क्या यही तरीका है ऐसे बच्चों का पेट भरने का गरीबी के तमगे के साथ नौकर या बंदुआ मज़दूर होना ही होगा अभी तक तो यही रीत चली आ रही है।चाइल्ड लेबर पर कुछ फिल्म्स भी बॉलीवुड में आईं सबसे पहले 1954 में 'बूट पोलिश' आयी थी जिसमें दिखाया गया था की कैसे माँ बाप की मौत के बाद बच्चे मजबूर होते हैं कमाने और खाने के लिए Slumdog Millionaire,I Am Kalam,Chillar Party,Stanley ka Dabba जैसी मूवीज़ ऐसी ही तस्वीर दिखाती हैं।
सरकार ने योजनाएं बनायीं कानून बनाये कदम सही उठाये पर रास्ता तय कैसे हो ?
जबतक ऐसे गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा,मिड डे मील्स,और सर पे छत नहीं मिलेगी तब तक यह यूँही भटकते रहेंगे कुछ भूख से मरेंगे तो कुछ गलत या खतरनाक काम करके भूख को मारेंगे।
छोटे छोटे हाथ से
कंपकंपाती आंत से
मौसम की मुसीबत के यह मारे
संतोषी जैसे कितने बालक
हो जाते भगवन को प्यारे।
ऐसे बहुत से NGO's हैं जो गरीब बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं।दिल्ली के युवा एनजीओ में मैं गयी थी एक बार वहां के बच्चों से मिलकर मुझे बिलकुल ऐसा नहीं लगा की उनमें शिष्टाचार की कोई कमी है हम सब एक दुसरे से मिलकर बहुत खुश हुए और देखने के बाद यह निश्चित हो गया की अगर क़दम उठाये जायें मदद के हाथ बढ़ाये जायें तो सिर्फ़ इन गरीब बच्चों का ही नहीं देश का भविष्य उज्जवल होगा।
जिस दिन हर बच्चा देश का खुश होगा,
उस दिन गर्व करियेगा और कहियेगा
Happy Children's Day
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