Monday, January 1, 2018

फिर एक नयी उमंग



क्यों है की कुछ पाने के लिए  कुछ  खोना पड़ता है 
जो अगर दूजा अरमान  जोड़  लो तो कुछ टूट जाना पड़ता है 
वक़्त है तो ज़िन्दगी है फिर जीवन के अपने रंग  हैं 
रंगों को घोलने का ढंग  है 
कि  तुम  में कितनी उमंग  है 
चाहे कितने भी गीले  हों 
इन्हें सूख जाना पड़ता है....

यह ख़्वाब भी बड़े सयाने हैं 
एक  को पंख  दो  तो बाक़ी साथ चले आते हैं
संग मेरे  उड़  जाने को 
पर यह पंछी  कहाँ जो सब साथ  उड़  सकें 
एक की  ख़ातिर दूजे  को पर कटवाना पड़ता है 
क्यूँकि है यही कि ------
कुछ पाने के लिए  कुछ  खोना पड़ता है ....

वाजिब से मंसूबों की भी अपनी अलग कहानी है
कभी सोती कभी जगती अंगड़ाई भी मनमानी है
हक़ीक़त से परे रतजगे अरमान हैं
हाँ हक़ीक़त ही है जो सपनों से अनजान है
ख़्वाहिशों में कोशिश को और मनाना पड़ता है
फिर थोड़ा पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है ....

इर्द-गिर्द घुमते ये मन के बहाने
मनमानी भी अठखेलियाँ भी करते हैं
झूमते घुमते पहुंच ही जाते हैं
कुछ करने की फ़िराक़ में अनजान ऊंची इमारतों की गलियों में
सर्दी की धुप या गर्मी की छाँव की तलाश में
कभी मौसम तो कभी हालात के थपेड़ों को झेलजाना पड़ता है
और सामान कमाने के लिए आराम गवाना पड़ता है
है यही की कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है....

आग़ाज़ का सवेरे से ताल्लुक तो नहीं है शायद
तभी तो ख्वाबों का आना जाना लगा रहता है वक़्त -बेवक़्त
रात को उम्मीद का दिलासा देकर
चुपके से थपकियों से समझाना पड़ता है
फिर एक इंतज़ार को बोना पड़ता है
उसे पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है।










2 comments:

Rahat Ahamad Khan said...

Very nice. Heart touching . 👌

RJ Richa said...

Thank you so much