हम गुफ़्तगू से बचते रहे
दिल गवा देने के डर से
जो बोये थे फ़ासले वजह दिल्लगी सी थी
ख़ामोशी की ज़ुबां मालूम हुयी
बिन मिले ही तुझसे
मुलाक़ात की कहानी तो कोरी सी थी
ना लिखे ख़त तुझे
न इंतज़ार का बहाना मिला
आशिक़ी की ना तुझसे
एक आरज़ू इश्काना सी थी
और फिर तेरा हर बात पे बोलना
मिठास से मुझसे
चाशनी में घुला मयखाना सी थी
देखा था चेहरा भीड़ में अजनबियों सा
जो दिखे दोबारा एक तस्वीर पुरानी सी थी
असर भी क्या अचानक रहा
तेरी मौजूदगी का खुद से
ना अपने थे ना पराये बने
बस तेरे होने में एक बात सी थी
लम्हे न थे बंदिश न थी
न फ़िक्र - ज़िक्र का फ़साना था तुझसे
बड़ी मशरूफ़ थी ज़िन्दगी
वक़्त की कमी बहुत थी
पर फिर भी एक फ़ुरसत सी थी
हम सोचते थे तुम कहो
तुम सोचते अब क्या कहें
पल मिले किस्मत नहीं
मन के धागे जुड़े ना तुझसे
उस कसक में भी एक चाहत सी थी
जो पसंद न आएं लफ्ज़ मेरे
तुम हस के उड़ा देना फिर मज़ाक के क़िस्से
मैं मान लूंगी इल्म नहीं नादानी है मुझमें
तुम मान लेना वो लड़की कम सयानी सी थी।
1 comment:
वहा!
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